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अभय कुमार दुबे के ब्लॉगः वर्ष 2019 को 1992 समझने की दिक्कतें

By अभय कुमार दुबे | Updated: November 8, 2018 03:10 IST

राम मंदिर में एक बार फिर चुनाव जिताने की संभावनाएं देखने वाला यह विश्लेषण इस धारणा पर टिका है कि 2019 में जो वोट डालने जाएंगे, उनका राजनीतिक - सामाजिक किरदार वही है जिसके आधार पर नब्बे के दशक में भाजपा के संसदीय उत्थान की पटकथा लिखी गई थी।

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अभय कुमार दुबे

राम मंदिर के मुकदमे में तारीख आगे बढ़ाने से पहले आमतौर से बहस इस बात पर होती थी कि 2004 और 2019 के बीच क्या फर्क है। यानी अटकल यह लगाई जाती थी कि क्या जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चुनाव जीतने के लिए सभी कुछ अपने पक्ष में होते हुए भी पराजित हो गई थी, कहीं नरेंद्र मोदी की सरकार भी सारी परिस्थितियां अपने पक्ष में होते हुए भी 2019 में पीछे तो नहीं रह जाएगी? लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इस तुलना को फिलहाल पृष्ठभूमि में फेंक दिया है, और अब नई तुलना 1992 और 2019 के बीच की जाने लगी है। प्रेक्षक और विश्लेषक दिमाग इस बात पर दौड़ा रहे हैं कि क्या बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने के 27 साल बाद हिंदू समाज एक बार फिर उसी तरह की धार्मिक राजनीति के उन्माद के लिए तैयार है? क्या एक बार फिर भाजपा को राम के नाम पर हिंदू ध्रुवीकरण का लाभ मिल सकता है? 

समझा जा रहा है कि अगर मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दबाव में आ गई और उसने संसद में मंदिर-निर्माण के लिए अयोध्या की विवादित जमीन को अधिग्रहीत करने के लिए कानून बनाने हेतु विधेयक लाने का फैसला ले लिया तो अगला चुनाव मंदिर के मुद्दे पर लड़ा जा सकता है। वजह सीधी है। यह विधेयक लोकसभा में तो पारित हो जाएगा, लेकिन राज्यसभा में यह फंस सकता है, और उस सूरत में भाजपा विपक्ष को ‘रामद्रोही’ करार दे कर मैदान में आ कर मतदाताओं से इस प्रश्न पर वोट देने की अपील कर सकती है। अगर विधेयक नहीं फंसा और विपक्ष ने भी इसे पारित कराने में सहयोग दे दिया, तो भाजपा यह कहते हुए चुनाव में उतरेगी कि उसने अपना वायदा निभा दिया है। हिंदुओं को जो चाहिए था, वह उन्हें मिल गया है। इससे ज्यादा बड़ी हिंदू सरकार और कौन सी हो सकती है। इस दूसरी स्थिति में भाजपा उम्मीद करेगी कि मतदाता उसकी सरकार की आíथक मोर्चे पर विफलताओं को माफ करने के लिए तैयार हो जाएंगे। अर्थात् दोनों ही स्थितियों में भाजपा के हाथ में लड्ड होंगे। 

राम मंदिर में एक बार फिर चुनाव जिताने की संभावनाएं देखने वाला यह विश्लेषण इस धारणा पर टिका है कि 2019 में जो वोट डालने जाएंगे, उनका राजनीतिक - सामाजिक किरदार वही है जिसके आधार पर नब्बे के दशक में भाजपा के संसदीय उत्थान की पटकथा लिखी गई थी। मेरे विचार से यह धारणा बुनियादी रूप से गलत है। नब्बे के दशक में हमारी चुनावी राजनीति पहली बार हिंदू बहुसंख्यकवादी रुझानों का स्वाद चख रही थी। उस समय की बहसों में अक्सर इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री कूद पड़ते थे। उस समय वामपंथी राजनीति के इरादे खासे मजबूत थे, और माना जाता था कि उदारतावादी चिंतन ही हमारी राजनीति की मुख्य और वैध अभिव्यक्ति है। भारत की अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण शुरू ही हुआ था, और देश आíथक झटके से उबरने की कोशिश कर रहा था। मध्यवर्ग का आकार आज के मुकाबले छोटा था, और उसकी महत्वाकांक्षाओं को वैसी उड़ान नहीं मिली थी जैसी उड़ान पर वह आजकल स्थायी रूप से सवार रहता है। उस समय तक वोटरों के बीच पार्टी-निष्ठा के पहलू आज के मुकाबले काफी मजबूत थे। वोटर जल्दी-जल्दी सरकार बदलने के मूड में नहीं रहते थे। 

आज का मतदाता मंडल अलग तरह का है। खास कर हिंदू मतदाता अपने हिंदू होने और उसके राजनीतिक महत्व की आश्वस्ति से भरा हुआ है। बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पंसख्यक मनोवृत्ति से ग्रस्त लोगों की संख्या हिंदुओं के बीच पहले के मुकाबले बहुत कम है। इसका एक कारण यह भी है कि मुस्लिम राजनीति की गोट बुरी तरह से पिट चुकी है। मुसलमान वोटर खुद भी समझ गए हैं कि अगर उनकी राजनीति का संदेश आक्रामक स्वरूप में जाएगा, तो प्रतिक्रिया में हिंदू ध्रुवीकरण हो जाएगा। यानी उनके वोटों की प्रभावकारिता शून्य हो जाएगी। अगर उन्हें अपने वोटों को प्रभावी बनाए रखना है तो उन्हें थोड़ा मौन हो कर राजनीति करनी होगी। दूसरे, आज का मतदाता मंडल किसी तरह से समाजवादी मुगालते में नहीं है। वह भीतर से बाहर तक बाजारवादी है और उसे आर्थिक प्रगति के अवसरों की तलाश है। ऐसी बात नहीं कि उसे धार्मिक राजनीति में रुचि नहीं है। वह बाकायदा बहुसंख्यकवादी है, लेकिन उनके मानस का यह पहलू उसकी अन्य आवश्यकताओं को हाशिये पर नहीं धकेल सकता। 

ऐसी बात नहीं कि भाजपा के भीतर इस परिवर्तन का एहसास नहीं है। उसके बुद्धिजीवियों ने खामोशी के साथ यह कहना शुरू कर दिया है कि 2019 को 1992 समझना एक भूल होगी। कहीं ऐसा न हो कि हिंदू ध्रुवीकरण की यह राष्ट्रीय कोशिश वांछित परिणाम देने से इंकार कर दे। अगर ऐसा हुआ तो इससे बहुसंख्यकवादी राजनीति के मुहावरे का स्खलन हो जाएगा, और नतीजे के तौर पर संघ के शस्त्रगार का प्रमुख अस्त्र एक बारगी भोथरा साबित लगने लगेगा।

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