राजेश बादल का ब्लॉग: आपदा में एकजुट देश और तंत्न के लिए सबक

By राजेश बादल | Published: April 1, 2020 05:43 AM2020-04-01T05:43:45+5:302020-04-01T05:43:45+5:30

कोई भी देश बड़े से बड़े संकट का मुकाबला हंसते-हंसते कर सकता है बशर्ते हुकूमत को अवाम का पूरा समर्थन हासिल हो. भारत में अवाम, विपक्ष और राज्य सरकारें इसमें कंधे से कंधा मिलाकर केंद्र का साथ दे रहे हैं.

Rajesh Badal blog on Coronavirus: Lessons for a united nation and system in disaster | राजेश बादल का ब्लॉग: आपदा में एकजुट देश और तंत्न के लिए सबक

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (एएनआई फाइल फोटो)

करीब सवा सौ करोड़ लोग एकांतवास में हैं. देश-दुनिया के ज्ञात इतिहास में पहला अवसर, अदृश्य दुश्मन से लड़ाई का अजीबोगरीब नजारा. संकट के नए रूपों से जूझता देश परेशान है कि आने वाले समय में हालात और बिगड़ेंगे या सुधरेंगे. अभी तक आपदाओं में सुनामी, बाढ़, भूकंप, प्लेग और हैजे जैसी बीमारियों ने विनाशकारी मंजर पेश किए हैं. इनसे अंतिम परिणाम के रूप में महामारी विभीषिका की तरह फैलती थी. लेकिन यह संकट तो मूल रूप से संक्रामक महामारी का ही है. एक महामारी से समूचे विश्व की जंग का भी यह पहला अनुभव है. देर-सबेर जब स्थितियां सामान्य होंगी, भारत को भी अपने आपदा तंत्न की समीक्षा करनी पड़ेगी. कोरोना संकट में आपदा तंत्न की नाकामी भी सामने आई है. तंत्न की समीक्षा के आधारबिंदु क्या हो सकते हैं?

अव्वल तो अधिकांश भारतीय शाबाशी के हकदार हैं कि वे इक्कीस दिनों का एकांतवास संयम और धीरज से काट रहे हैं. प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक कोरोना भारत में अभी भी उतना विकराल आकार नहीं ले सका, जितना यूरोप और पश्चिमी राष्ट्रों में. सवा सौ करोड़ की जनसंख्या के अनुपात में संक्रमण और मौतें अभी काबू में हैं. सावधानियां और उपाय इस जिन्न को बोतल से बाहर नहीं निकलने देंगे, ऐसी आशा करनी चाहिए. संघर्ष-काल लंबे समय तक चल सकता है. हमें इस मुश्किल दौर का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कोई भी देश बड़े से बड़े संकट का मुकाबला हंसते-हंसते कर सकता है बशर्ते हुकूमत को अवाम का पूरा समर्थन हासिल हो. भारत में अवाम, विपक्ष और राज्य सरकारें  इसमें कंधे से कंधा मिलाकर केंद्र  का साथ दे रहे हैं.

पत्नकार के तौर पर मुझे अब तक सुनामी, अनेक बड़े भूकंप, बाढ़ें और भोपाल गैस त्नासदी के कवरेज का अवसर मिला है. मैंने पाया है कि संकट में अभावों के बावजूद भारतीय परिपक्व सोच का परिचय देते हैं. लेकिन हमारा आपदा तंत्न हर बार लड़खड़ाया सा नजर आता है. इस तंत्न को अभी तक मानक पेशेवर दक्षता हासिल नहीं हुई है. इसलिए जब ऐसे हालात बनते हैं तो जनता धीरज दिखाती है और पुलिस लाठियां बरसाती है. दंगे नहीं हो रहे हों अथवा गुंडों से नहीं निपटना हो तो भी पुलिस शांत लोगों को बेवजह गुस्से का शिकार क्यों बनाती है - यह पहेली किसी को समझ नहीं आती.

अवाम तो पहले ही खौफजदा है, उस पर डंडे बरसा कर पुलिस या अन्य सुरक्षा बल ताकत दिखाते हैं तो माना जाता है कि उन्हें यही प्रशिक्षण मिला है. राह चलते दूध की थैली या सब्जी ले जा रहे इंसान पर लाठी क्यों बरसनी चाहिए? गाड़ी से जा रहा व्यक्ति बाहर निकलने की मजबूरी बता रहा है तो सलाह देने के स्थान पर पीट देना, मुर्गा बना देना या कान पकड़कर उठक-बैठक लगवाना बुनियादी अधिकारों का हनन ही तो है? इस दौर में हर इंसान भयभीत है. टीवी और इंटरनेट के जरिए खबरें उसे मिल रही हैं. लॉकडाउन में उसे घर में रहना चाहिए - यह भी वह जानता है. फिर भी वह सड़क पर निकल रहा है तो देखते ही गोली मारने का आदेश देना कितना उचित है? बेचैनी तो इस पर होनी चाहिए कि क्या वजह है जो वह घर से बाहर आया है. यह समझना कि वह सैर-सपाटे के लिए ही घर से बाहर निकला है - क्रूरता और अमानवीय है.

दूसरी बात, आफत के समय केंद्र तथा सभी राज्यों के राहत और पुनर्वास विभागों में अंदरूनी तालमेल बिखर जाता है. जब कई दिन तक लोगों को घरों में कैद रहना पड़ता हो तो न्यूनतम जरूरी चीजों की सप्लाई जितनी मीडिया में नजर आती है, उतनी वाकई मैदान में नहीं होती. मौजूदा स्थितियों में सरकारी अस्पताल काम तो कर रहे हैं, पर प्रबंधन यह नहीं सोच रहा कि कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों से गंभीर रूप से पीड़ित मरीजों का क्या होगा? सामान्य स्थिति में ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं संतुष्ट नहीं कर पातीं. आपातकाल में तो ये और जटिल बन गई हैं. उन सारे डॉक्टर्स को सलाम, जो पीड़ित मानवता की सेवा में अनवरत लगे हुए हैं, पर हकीकत
यह है कि इन दिनों अस्पताल से वंचित बीमारों की तादाद कहीं अधिक है.

लॉकडाउन में संपूर्ण यातायात ठप करना आसान है पर करोड़ों व्यक्तियों की मुसीबत का ध्यान नहीं रखना भी कतई बुद्धिमानी नहीं है. सार्वजनिक स्थलों - रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, विमानतल, अस्पताल, सब्जी मंडी जैसे भीड़ वाले स्थानों को सौ फीसदी सैनिटाइज करने के बजाय उन्हें बंद करने का निर्णय हमारे आपदा प्रबंधन की कमजोरी ही है. आपदा-आशंकाओं से भरे इस मुल्क में अभी भी प्रबंधन का पूर्ण पेशेवर और परिपक्व ढांचा नहीं बन सका है. सुनामी के समय भी हमने देखा है और इन दिनों भी देख रहे हैं.  

पूर्ण लॉकडाउन के कारण लाखों लोग अपने गांवों - कस्बों के लिए पैदल निकल पड़े हैं. उनकी रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है. रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले इन दैनिक श्रमिकों के लिए आपदा के दिनों में इंतजाम क्यों नहीं होना चाहिए? वर्तमान संकट तो कुछ महीने बाद समाप्त हो जाएगा, पर इसके बाद आपदा प्रबंधन का चुस्त-दुरुस्त चेहरा देखने को मिलेगा, हम ऐसी आशा कर सकते हैं.
 

Web Title: Rajesh Badal blog on Coronavirus: Lessons for a united nation and system in disaster

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