प्याऊ: एक मानवीय परंपरा की मौत?, पाउच और बोतल संस्कृति के बीच दम तोड़ते!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 26, 2025 05:38 IST2025-05-26T05:38:19+5:302025-05-26T05:38:19+5:30

pyau: गांव, कस्बों और शहरों में कई प्याऊ देखने को मिल जाते थे. जहां टाट से घिरे एक कमरे में रेत पर रखे पानी से भरे लाल रंग के घड़े होते थे.

pyau Death a human tradition dying amidst pouch and bottle culture blog Dr Mahesh Parimal | प्याऊ: एक मानवीय परंपरा की मौत?, पाउच और बोतल संस्कृति के बीच दम तोड़ते!

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Highlightsअच्छी परंपराएं हमारे देखते ही देखते समाप्त हो जाती हैं, उसे परंपरा की मौत कहा जा सकता है.कुछ ऐसा ही अनुभव तब हुआ, जब पाउच और बोतल संस्कृति के बीच प्याऊ की परंपरा को दम तोड़ते देख रहा हूं.पानी कहते ही भीतर कुछ हलचल होती और उस पाइपनुमा यंत्र से ठंडा पानी आना शुरू हो जाता था.

डॉ. महेश परिमल

किसी समाज या समूह में लंबे समय से चली आ रही किसी परंपरा का अंत हो जाना कई बार खुशियां देता है, पर कई बार यह भीतर से रुला देता है. कई परंपराएं या तो किसी कारण से धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं या अचानक किसी घटना के कारण समाप्त हो जाती हैं. समाज में कई परंपराएं जन्म लेती हैं और कई टूट जाती हैं. परंपराओं का प्रारंभ और अंत विकासशील समाज के लिए आवश्यक भी है. परंपराएं टूटने के लिए ही होती हैं पर कुछ परंपराएं ऐसी होती हैं, जिनका टूटना मन को दु:खी कर जाता है. पर जो अच्छी परंपराएं हमारे देखते ही देखते समाप्त हो जाती हैं, उसे परंपरा की मौत कहा जा सकता है.

कुछ ऐसा ही अनुभव तब हुआ, जब पाउच और बोतल संस्कृति के बीच प्याऊ की परंपरा को दम तोड़ते देख रहा हूं. पहले गांव, कस्बों और शहरों में कई प्याऊ देखने को मिल जाते थे. जहां टाट से घिरे एक कमरे में रेत पर रखे पानी से भरे लाल रंग के घड़े होते थे. बाहर एक टीन की चादर को मोड़कर पाइपनुमा बना लिया जाता था.

पानी कहते ही भीतर कुछ हलचल होती और उस पाइपनुमा यंत्र से ठंडा पानी आना शुरू हो जाता था. प्यास खत्म होने पर केवल अपना सिर हिलाने की जरूरत पड़ती और पानी आना बंद. जरा अपने बचपन को टटोलें, इस तरह के अनुभवों का पिटारा ही खुल जाएगा. अब यदि आपको उस पानी पिलाने वाली बाई का चेहरा याद आ रहा हो, तो यह भी याद कर लें कि कितना सुकून हुआ करता था, उसके चेहरे पर.

एक अजीब-सी शांति के दर्शन होते थे, उसके चेहरे पर. इसी शांति और सुकून को कई बार मैंने उन मांओं के चेहरे पर देखा है, जब वे अपने बच्चे को दूध पिलाती होती हैं. कई बार रेलवे स्टेशनों पर गर्मियों में पानी पिलाने का पुण्य कार्य किया जाता है. पानी पिलाने वालों की केवल यही प्रार्थना होती, जितना चाहे पानी पीयें, चाहे तो सुराही में भर लें, पर पानी बर्बाद न करें.

उनकी यह प्रार्थना उस समय लोगों को भले ही प्रभावित न करती हों, पर आज जब उन्हीं रेलवे स्टेशनों में पानी की बोतलें खरीदनी पड़ती हैं, तब समझ में आता है कि सचमुच उनकी प्रार्थना का कोई अर्थ था. समय के साथ सब कुछ बदल जाता है, पर अच्छी परंपराएं जब देखते ही देखते दम तोड़ने लगती हैं, तब दु:ख का होना स्वाभाविक है.

देखते ही देखते पानी बेचना एक व्यवसाय बन गया. यह हमारे द्वारा किए गए पानी की बर्बादी का ही परिणाम है. आज भले ही हम पानी बर्बाद करना अपनी शान समझते हों, पर सच तो यह है कि यही पानी एक दिन हम सबको पानी-पानी कर देगा, तब भी हम शायद समझ नहीं पाएंगे, एक-एक बूंद पानी का महत्व.

Web Title: pyau Death a human tradition dying amidst pouch and bottle culture blog Dr Mahesh Parimal

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