पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः क्या ठप हो चला है देश का बैंकिंग सिस्टम?
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: October 1, 2019 05:01 AM2019-10-01T05:01:20+5:302019-10-01T05:01:20+5:30
इस प्रकिया में दो सवाल भी उठे. पहला, इसमें उन आम लोगों का क्या दोष जिन्होंने को-ऑपरेटिव बैंक में भरोसे के तहत अपना पैसा जमा किया कि रिटर्न अच्छा मिलेगा. दूसरा - क्या आने वाले वक्त में को-ऑपरेटिव बैंकों की तर्ज पर सरकारी बैंकों पर भी रोक लगेगी
एक तरफ सरकारी बैंकों में बढ़ते फ्राड के मामले तो दूसरी तरफ को-ऑपरेटिव बैंक की खस्ता हालत. फिर रिजर्व बैंक की ढीली पड़ती लगाम और देश में आर्थिक मंदी के वक्त राजनीतिक तौर पर समूची बैंकिंग प्रणाली के जरिए ही सियासत साधने की कोशिश. दरअसल ये पहली बार है कि राजनीतिक व्यवस्था ही बैंकिंग सिस्टम पर निर्भर हो चली है या कहें बैंकिंग सिस्टम ही राजनीतिक व्यवस्था को चला रहा है. यानी पूंजी किस हद तक भारतीय समाज-व्यवस्था को प्रभावित कर चुकी है, ये देश की जीडीपी या अर्थव्यवस्था को समझने से ज्यादा आसान हो चला है कि देश की बैंकिंग व्यवस्था में लग चुकी दीमक से समझा जाए.
पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक या उसके 48 घंटे बाद ही जिस तरह लक्ष्मी विलास बैंक के डूबने का एहसास रिजर्व बैंक को हुआ, इस अक्स में दर्जन भर उन को-ऑपरेटिव बैंकों पर कसी गई रिजर्व बैंक की लगाम के बाद उन आम लोगों के हालात को समझा जा सकता है जिनका पैसे इन बैंकों में जमा था, लेकिन अब वह आजादी से पैसा नहीं निकाल सकते हैं. इस फेरिहस्त में मापुसा अर्बन को-ऑपरेटिव बैंक ऑफ गोवा, केरल मर्केन्टाइल को-ऑपरेटिव बैंक, द मराठा सहकारी को-ऑपरेटिव बैंक, द सीकेपी को-ऑपरेटिव बैंक, बिदर महिला अर्बन को-ऑपरेटिव बैंक, श्री गणोश सहकारी बैंक, इंडियन मर्केटाइल को-ऑपरेटिव बैंक - यानी फेरिहस्त खासी लंबी है जिनपर रिजर्व बैंक को नकेल कसनी पड़ी.
लेकिन इस प्रकिया में दो सवाल भी उठे. पहला, इसमें उन आम लोगों का क्या दोष जिन्होंने को-ऑपरेटिव बैंक में भरोसे के तहत अपना पैसा जमा किया कि रिटर्न अच्छा मिलेगा. दूसरा - क्या आने वाले वक्त में को-ऑपरेटिव बैंकों की तर्ज पर सरकारी बैंकों पर भी रोक लगेगी, क्योंकि देश के 18 सरकारी बैंकों में जितनी बड़ी तादाद में फ्राड की घटनाएं बीते पांच बरस में हुई हैं और लगातार हो रही हैं, साथ ही जितनी बड़ी रकम का फ्राड बैंकों में हो रहा है, वह किसी को भी डरा सकता है. क्योंकि सिलसिलेवार तरीके से हालात परखें तो बीते पांच बरस में बैंकिंग फ्राड की घटनाएं चरम पर हैं. मसलन, 2014-15 से 2018-19 तक देश में कुल फ्राड की 24090 घटनाएं हुईं. यानी बीते पांच बरस में औसतन हर दिन 13 फ्राड की घटनाएं हो रही थीं और इसी दौर में कुल 1,74,743.75 करोड़ रुपए का फ्राड हुआ.
दरअसल मनमोहन सत्ता के दौर में हुए फ्राड से छह गुना ज्यादा रकम का ये फ्राड है. वित्त वर्ष 2019-20 के पहले क्वार्टर यानी अप्रैल-जून तक के दौर में 18 सरकारी बैंकों में रिकार्ड फ्राड हुआ. रिजर्व बैंक के मुताबिक पहले क्वार्टर में कुल 2480 फ्राड की घटनाओं में 31898.63 करोड़ रु. का फ्राड हुआ. यानी सरकारी बैंकों के इस फ्राड की रकम के आगे को-ऑपरेटिव बैंक के घपले घोटाले कोई मायने ही नहीं रखते. दरअसल फ्राड से बैंकों को लगते इस चूने पर सरकार का कितना ध्यान है या रिजर्व बैंक ने सुरक्षा के लिए वाकई कोई कदम उठाया भी है कि नहीं, ये भी सवाल है. क्योंकि बैंकों के बढ़ते एनपीए में फ्राड की ये रकम भी शामिल हो जाती है.
ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में सरकार पर कर्ज 88 लाख करोड़ का हो गया है. मनमोहन सिंह के दौर यानी 2014 मार्च तक ये कर्ज 53 लाख करोड़ था. फिर आईएमएफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत पर 513.21 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज हो चुका है जो चीन और ब्राजील के बाद सबसे ज्यादा है. जाहिर है कर्ज की भरपाई कभी हो नहीं सकती और यही वो रास्ता है जहां व्यवस्था बनाए रखने के लिए कर्ज में डूबा देश फिर कर्ज लेता है और आर्थिक राजनीतिक निर्णय भी विदेशी बैंकों से प्रभावित होने
लगते हैं.