पिछले कुछ दिनों से दिल्ली की सुबह ऐसी हो रही है कि धुंध के बीच सूरज छिप जा रहा है और हवा जहरीली हो गई है। घर से बाहर निकलने में डर लग रहा है। पर उससे भी काम नहीं चलता क्योंकि वही हवा घर के भीतर भी पहुंच रही है। जीने के लिए सांस लेनी होगी और सांस लेते हुए जहर निगलना ही पड़ेगा। इस हालत का बच्चों और बूढ़ों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। अस्पतालों में श्वास के रोगी बहुत बढ़ गए हैं। हृदय और मधुमेह के रोगियों की मुसीबत और बढ़ गई है।
खबरें हैं कि करवा चौथ के दिन भारतीयों ने पंद्रह हजार करोड़ की खरीदारी की। निश्चय ही यह तथ्य बताता है कि लोगों की क्रय शक्ति में इजाफा हुआ है। ऐसे में बाजार की धमाचौकड़ी बढ़ती है। इसी के साथ सड़कों पर मोटर वाहनों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है जिनसे दैनिक जाम लगना आम बात हो गई है और साथ ही वायु प्रदूषण भी अनिवार्य रूप से अनियंत्रित होता जा रहा है। परंतु स्मॉग यानी धुआं और धूल-धक्कड़ के मिश्रण की बहुतायत का मुख्य और फौरी कारण आसपास के खेतों में किसानों द्वारा पराली जलाने से उपजा धुआं है। देश की राजधानी गैस चेम्बर सरीखी बन रही है और उससे बचाव के लिए प्राइमरी स्कूल बंद करने का फैसला लेना पड़ा।
पर यह कोई समाधान नहीं है और इस स्थिति के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव से बचने का कोई मार्ग नहीं है। सामाजिक समस्याओं के प्रति इस तरह की उदासीनताओं के हम आदी होते जा रहे हैं। हम समस्याओं को तब तक बढ़ने देते हैं जब तक वे विस्फोटक न हो जाएं। टूटने के कगार पर पहुंचने के बाद ही सरकार के कान पर जूं रेंगती है और तब कुछ किया जाता है। जन-प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद अक्सर सिर्फ अपने निजी हित को ही सुरक्षित रखने में लगे रहते हैं। जनता और जनता की कठिनाइयां धरी की धरी रह जाती हैं।
विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने की, विश्व गुरु होने की और वैश्विक नेतृत्व की हमारी महत्वाकांक्षाओं के शोर-शराबे में पर्यावरण, सामाजिक समरसता, मूल्यपरक शिक्षा और नैतिकता के जरूरी और जायज सवाल दब जाते हैं या फिर विचार के क्रम में मुल्तवी रख दिए जाते हैं। अमृत काल के उत्सव में हमें अपने अंदर झांकना होगा और सबको जगाना होगा। तभी सच्चे और पूरे रूप में स्वराज आ सकेगा।