Patur Municipal Council Building: पता नहीं लोग कितने फुर्सती हैं या फिर धार्मिक वैमनस्य की ज्वाला में इतने जले-भुने हैं कि भाषा को भी अपना शिकार बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते हैं. अकोला जिले के पातुर नगर परिषद भवन के साइन बोर्ड पर उर्दू का क्या उपयोग हुआ, इसे लेकर याचिका दायर हो गई.
अंतत: मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा और दो जजों की खंडपीठ ने याचिका खारिज कर दी. याचिका खारिज करते हुए न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं. एक तो यह कि कोई भी भाषा किसी धार्मिक समुदाय को मापने का पैमाना नहीं है और दूसरी बात यह कि उर्दू कोई विदेशी भाषा नहीं है बल्कि उसका जन्म भारत में ही हुआ है.
न्यायालय ने बिल्कुल सही बात कही है. यदि हम उर्दू के इतिहास को जानने समझने की कोशिश करें तो स्वत: ही समझ में आ जाता है कि उर्दू और हिंदी को अलग करके नहीं देखा जा सकता. दोनों का जन्म भारत में हुआ है. लेखन की लिपि को छोड़ दें तो भाषा विज्ञान की दृष्टि से दोनों भाषाएं बहुत करीब नजर आती हैं. दोनों का व्याकरण करीब-करीब एक जैसा है.
तेरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक उर्दू को हिंदवी नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि 1751 में अमरोहा में जन्मे कवि और शायर गुलाम हमदानी मुस्हफी ने 1770 में सबसे पहले उर्दू शब्द का उपयोग किया. हालांकि अपनी शायरी के लिए वे भी हिंदवी शब्द का ही उपयोग कर रहे थे. उन्होंने लिखा... मुस्हफी फारसी को ताक पर रख/अब है अशआर-ए-हिन्दवी का रिवाज.
इतिहास बताता है 18वीं शताब्दी के अंत में उर्दू को जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला यानी ऊंचे खेमे की भाषा कहा जाने लगा था. मुगल शासकों की शासन व्यवस्था में पहले फारसी का बोलबाला हुआ करता था लेकिन धीरे-धीरे उर्दू ने वहां अपनी पैठ बनानी शुरू की. इस बीच हिंदी अपनी जगह बनी रही. चूंकि मुगल काल में उर्दू का विकास हुआ, इसीलिए शायद यह धारणा बनती चली गई कि यह मुसलमानों की भाषा है जबकि हकीकत से इसका कोई लेना-देना नहीं था. शाहजहां के समय में फारसी के जानकार पंडित चंद्रभान ने उर्दू में कई रचनाएं लिखीं.
बाद के समय में भी बहुत से ऐसे शायर हुए हैं जो हिंदू थे लेकिन उन्होंने उर्दू में बहुत शानदार लेखन किया है. उदाहरण के लिए फिराक गोरखपुरी, गुलजार देहलवी, कृष्ण बिहारी नूर का नाम लिया जा सकता है. उर्दू की अपनी एक नजाकत है, उसका अपना एक सुरूर है. हिंदी के पास अपना लालित्य है, अपना प्रवाह है.
आशय यह है कि भाषा की कभी तुलना नहीं की जा सकती या फिर किसी भाषा को किसी खास समुदाय की विकास यात्रा के साथ नहीं जोड़ा जा सकता. मगर भारत में दुर्भाग्य से ऐसा हुआ है. उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित कर दिया गया और हिंदी हिंदुओं की भाषा कहलाने लगी. ठीक उसी तरह से जैसे हरा रंग मुसलमानों का मान लिया गया और भगवा हिंदुओं का हो गया.
वास्तव में इसके पीछे धार्मिक कट्टरता के अलावा और कुछ नहीं है. प्रकृति की रचना में तो यह भेदभाव कहीं नजर नहीं आता तो फिर हम इंसानों ने यह भेदभाव कैसे पैदा कर दिया? ध्यान रखिए कि हम हिंदुस्तानियों के लिए दोनों भाषाएं हमारी हैं. इस पर मशहूर शायर मुनव्वर राना का एक शेर बड़ा मौजूं है... लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है/मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है.