समाज का कोई भी क्षेत्र हो, परिवर्तन की लहर युवाओं के कंधों पर ही सवार होकर आती है. राजनीति भी इससे अछूती नहीं है. स्वतंत्रता संग्राम या उसके पहले 1857 की क्रांति की धारा युवाओं ने ही प्रवाहित की थी. बुजुर्ग पीढ़ी मार्गदर्शक के रूप में उनका नेतृत्व जरूर कर रही थी लेकिन क्रांतियों और बदलाव का दौर सफल हुआ तो युवा शक्ति की ताकत एवं समर्पण के बल पर. आज भारतीय राजनीति संक्रमण के दौर से गुजर रही है. गरीबों का कल्याण, देश का हित नारों तक सिमट कर रह गया है, नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, सेवा के संकल्प पर सत्ता का लोभ हावी हो गया है.
राजनीति में वैचारिक तथा सैद्धांतिक मूल्यों के लिए कोई जगह ही नहीं है. अगर भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा सिद्धांतों के पतन का यही सिलसिला जारी रहा तो लोकतंत्र की जड़ें बेहद कमजोर हो जाएंगी. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक अभिनव प्रयोग कर रहे हैं. वे ऐसे युवाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाना चाहते हैं, जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि न हो लेकिन उनमें देश के हित के लिए खुद को समर्पित कर देने का जज्बा हो. विपक्षी दल इसके पीछे मोदी की नई राजनीतिक रणनीति कह सकते हैं.
वे यह आरोप लगा सकते हैं कि प्रधानमंत्री भाजपा के लिए युवाओं की नई टीम तैयार कर रहे हैं लेकिन आरोप लगाने के पहले आलोचकों को आत्ममंथन भी कर लेना चाहिए. तमाम विपक्षी दलों को यह सोचना चाहिए कि नई पीढ़ी को राजनीति के मुख्य प्रवाह में लाने के लिए उन्होंने कितना योगदान दिया, वे नई पीढ़ी को राजनीति में लाए या उसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया.
रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इस संकल्प को दोहराया कि वह बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले युवाओं को राजनीति की मुख्य धारा में लाएंगे. इस संकल्प को साकार करने की दिशा में पहले कदम के रूप में 11 और 12 जनवरी 2025 को ‘विकसित भारत युवा नेता संवाद’ कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है.
उसमें मोदी राजनीति के माध्यम से देश तथा जनता की सेवा करने का भाव रखनेवाले युवाओं से संवाद साधेंगे. लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने इसी वर्ष युवा पीढ़ी से राजनीति में आने का आह्वान किया था और इसके लिए ठोस पहल करने की आवश्यकता जताई थी. प्रधानमंत्री अपने उसी अभियान को मूर्त रूप देने का प्रयास कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री की पहल कितनी सफल होगी, यह तो समय ही बताएगा लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ऐसी पहल नई सदी में पहली बार हो रही है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में जब-जब भी बदलाव की लहर उठी, युवाओं ने ही उसका नेतृत्व किया. अस्सी के दशक में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन हो, 1974 का गुजरात में चिमनभाई पटेल सरकार के विरुद्ध छात्र आंदोलन हो या नब्बे के दशक में असम में असम गणपरिषद का आंदोलन या नई सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो, युवा पीढ़ी ने उसे अपनी शक्ति दी, आहुति दी. तभी वे सफल हुए. भारत में लोकतंत्र की सफलता का सबसे बड़ा आधार भी युवा शक्ति ही है.
जब से 18 वर्ष के युवा वर्ग को मतदान का अधिकार मिला है, उसने जाति-धर्म, संप्रदाय के नजरिए से हटकर वोट डाला. इसके कारण पिछले दो दशकों में देश में वोट के माध्यम से बड़े राजनीतिक बदलाव देखने को मिले. इसके बावजूद यह भी सच है कि नई पीढ़ी के बड़े वर्ग ने लोकतंत्र में वोट देने तक ही अपनी भूमिका को सीमित रखा है.
वे अपने करियर को ज्यादा महत्व देते हैं. राजनीति और राजनेताओं के बारे में उनके मन में नकारात्मक छवि बस गई है. राजनीति में जिस तरह से नैतिकता का पतन हुआ है, छल-कपट, बाहुबल तथा धनबल का वर्चस्व बढ़ा है, उससे उनके मन में राजनीति के प्रति नकारात्मक छवि का उभरना स्वाभाविक है.
इस धारणा को मजबूती राजनेता प्रदान करते हैं. वे राजनीति में युवा पीढ़ी को प्रोत्साहन देने के नाम पर अपने परिवार के सदस्यों को ही आगे लाते हैं. आज राजनीति में बड़ी संख्या में राजनीतिक परिवार ही सक्रिय हैं. अपने-अपने क्षेत्र को कई राजनेताओं ने अपनी जागीर समझ ली है और उसे अपने कब्जे में रखने के लिए वे अपने ही पुत्र-पुत्रियों या परिवार के अन्य युवा सदस्यों को तैयार करते हैं.
इससे राजनीति में आने का इच्छुक सामान्य युवा राजनीति में अपने लिए कोई जगह नहीं देखता. राजनीति में राष्ट्र के प्रति समर्पित युवा को सक्रिय करने के लिए राजनीति तथा राजनेताओं के प्रति धारणा बदलनी होगी. यह धारणा बनानी होगी कि राजनीति में चरित्रवान लोगों का स्वागत है. इसके लिए राजनीतिक दलों को अपने मतभेदों से ऊपर उठकर प्रधानमंत्री जैसी ही पहल करनी पड़ेगी.