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Parliament session: सांसद प्रियंका से कांग्रेस खुश, भाजपा असहज?, जनता के बीच जाने की हिम्मत नहीं...

By हरीश गुप्ता | Updated: December 19, 2024 05:16 IST

Parliament session: नेहरू-गांधी परिवार की ये नवीनतम सदस्य भाजपा के रणनीतिकारों को आने वाले दिनों में उनका मुकाबला करने के लिए एक रणनीति तैयार करने के लिए मजबूर कर सकती हैं.

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ठळक मुद्देप्रियंका ने अपना संयम बनाए रखा और कभी विचलित नहीं हुईं या अपना आपा नहीं खोया.32 मिनट के भाषण में तीखे कटाक्ष और आलोचनाएं कीं, केवल भाजपा पर निशाना साधा.पहले राजा भेष बदल कर आलोचना सुनने जाते थे. आज पीएम भेष तो बदल रहे हैं, लेकिन जनता के बीच जाने की हिम्मत नहीं है.

Parliament session: प्रियंका गांधी वाड्रा ने संसद में अपनी पहली उपस्थिति के लिए भले ही केरल के सुदूर दक्षिण स्थित वायनाड को सुरक्षित ठिकाना चुना हो, लेकिन पिछले सप्ताह लोकसभा में उनकी मुस्कुराहट भरी व्यंग्यात्मक टिप्पणियों के साथ, शुद्ध हिंदी में दिए गए पहले भाषण से संसद में बिताए गए अच्छे पुराने दिनों की याद ताजा हो गई. उन्होंने अगर मजाक उड़ाया, तो मर्मस्थलों पर भी प्रहार किया. हालांकि उन्होंने ज्यादातर लिखित नोट्स और टेक्स्ट से बात की, लेकिन वे सहज थीं, जिससे यह स्पष्ट रूप से पता चलता था कि कांग्रेस की तरफ से वे मजबूती से भाजपा का  मुकाबला कर सकती हैं.

भले ही वे चौथी पंक्ति में बैठी थीं. नेहरू-गांधी परिवार की ये नवीनतम सदस्य भाजपा के रणनीतिकारों को आने वाले दिनों में उनका मुकाबला करने के लिए एक रणनीति तैयार करने के लिए मजबूर कर सकती हैं. प्रियंका ने अपना संयम बनाए रखा और कभी विचलित नहीं हुईं या अपना आपा नहीं खोया.

अपने 32 मिनट के भाषण में, जिसमें तीखे कटाक्ष और आलोचनाएं कीं, उन्होंने न केवल भाजपा पर निशाना साधा, बल्कि मोदी पर भी निशाना साधते हुए कहा, ‘‘पहले राजा भेष बदल कर आलोचना सुनने जाते थे. आज पीएम भेष तो बदल रहे हैं, लेकिन जनता के बीच जाने की हिम्मत नहीं है.’’

गांधी भाई-बहन के बीच तुलना अपरिहार्य है, क्योंकि भाजपा सांसदों ने स्वीकार किया है कि प्रियंका की हिंदी में धाराप्रवाहता और राजनीतिक कौशल उनके भाई से बेहतर है. दिलचस्प बात यह है कि दोनों ने अलग-अलग दिनों में एक ही विषय पर बात की और वे अलग दिखीं. कांग्रेस के अधिकांश वरिष्ठ नेता उनके बारे में अच्छी बातें कहते हैं क्योंकि वह विनम्र, अच्छी श्रोता और प्रेरक हैं.

वह अपने भाई के करियर के लिए भले ही खतरा न बनें लेकिन वह संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जिस तरह से प्रदर्शन कर रही हैं, वैसा ही प्रदर्शन अगर जारी रखती हैं तो पार्टी के भीतर उनकी राजनीतिक प्रोन्नति की मांग बढ़ेगी.

‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए मध्य मार्ग

यह स्पष्ट हो गया है कि जब संविधान संशोधन विधेयक को लोकसभा में पेश किया गया था, तब भाजपा को दो-तिहाई बहुमत नहीं मिला था.  हालांकि उस समय दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता भी नहीं थी लेकिन एनडीए दलों ने व्हिप जारी किया था और यह शक्ति परीक्षण का पहला मौका था.

स्पष्ट रूप से, अगर मोदी सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है तो उसे बहुत अधिक जमीनी तैयारी करनी होगी. इस मुद्दे को जेपीसी को भेजा गया है और सरकार को आने वाले महीनों में विधेयक को पारित कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत जुटाने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा.

सरकार ने दावा किया कि रामनाथ कोविंद पैनल के समक्ष 32 राजनीतिक दलों ने ‘एक देश, एक चुनाव’ का समर्थन किया था. लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि जब भाजपा के पास अपने 303 लोकसभा सांसदों और सहयोगियों के साथ 363 सांसदों का विशाल जनादेश था, तब ये दल उनके साथ थे.

लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक स्थिति बदल गई क्योंकि भाजपा स्पष्ट बहुमत पाने में विफल रही और सहयोगियों के साथ उसकी सीटें 300 से कम रहीं. आने वाले महीनों में पार्टी कुछ और विधानसभाओं में जीत सकती है, लेकिन कोई भी क्षेत्रीय पार्टी, यहां तक कि उसके सहयोगी भी, इस स्थिति से खुश नहीं हैं.

इसलिए, कई समझदार लोगों ने एक ‘मध्य मार्ग’ सुझाया है. उन्होंने सुझाव दिया है कि मई 2029 में निर्धारित समय पर लोकसभा चुनाव कराए जा सकते हैं और भारत भर के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधानसभा चुनाव ढाई साल बाद कराए जा सकते हैं. राज्यों के चुनाव क्षेत्रीय आकांक्षाओं का ख्याल रखेंगे और साथ ही केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति मतदाताओं के मूड को भी दर्शाएंगे.

क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के साथ तैरने या डूबने के लिए अनिच्छुक हैं और उनका मानना है कि संघीय ढांचे में उन्हें भी अपनी बात कहने का हक है. यदि मौजूदा सरकार वांछित जनादेश हासिल करने में विफल रहती है, तो इस मध्य मार्ग को सभी पक्षों से समर्थन मिल सकता है.

तीसरा विकल्प

एक तीसरा फॉर्मूला भी है. अगले लोकसभा चुनाव मई 2029 में होने हैं. आंध्र प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और ओडिशा के विधानसभा चुनाव तय समय के अनुसार लोकसभा चुनाव के साथ ही होंगे. हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव अक्तूबर और नवंबर 2029 में होंगे. इन दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है और इन राज्यों में विधानसभा चुनाव कुछ महीने पहले लोकसभा चुनाव के साथ करवाए जा सकते हैं. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अब नवंबर-दिसंबर 2028 में चुनाव होने हैं.

इन राज्यों में अभी भाजपा की सरकार है और मौजूदा कानूनों के तहत ही उपलब्ध अन्य विकल्पों के जरिये इन्हें कुछ महीने के लिए टाला जा सकता है. इस तरह कम से कम आधे भारत में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं. हालांकि झारखंड और जम्मू-कश्मीर (अक्तूबर 2029), तेलंगाना और मिजोरम (अक्तूबर 2028), कर्नाटक (मई 2028) त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड (फरवरी 2028) तथा तमिलनाडु, केरल, यूपी, मणिपुर, पंजाब, हिमाचल, पश्चिम बंगाल, बिहार (2026 और 2027) आदि ‘एक देश, एक चुनाव’ से बाहर हो जाएंगे. इन राज्यों को भी धीरे-धीरे जोड़ा जा सकता है क्योंकि इनमें से कुछ पर भाजपा या उसके सहयोगियों का शासन है.

भाजपा-इंडिया गठबंधन एक ही नाव पर

भाजपा ने हरियाणा और महाराष्ट्र में विपक्ष का नेता चुनने में विफल रहने के लिए इंडिया गठबंधन के नेताओं को ताना मारा. कांग्रेस को हरियाणा में चुनाव हारे हुए लगभग दो महीने हो चुके हैं और 90 के सदन में वह 37 सीटों पर सिमट गई. लेकिन पार्टी राज्य विधानसभा में अपना नेता चुनने में विफल रही है, क्योंकि इस पर सर्वसम्मति नहीं है.

पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा हार मानने को तैयार नहीं हैं और न ही उनके विरोधी. आलाकमान चुप है. महाराष्ट्र में स्थिति नाजुक है, जहां तीन एमवीए साझेदार अभी तक परिणामों से उबर नहीं पाए हैं. लेकिन झारखंड की बात करें तो भाजपा की स्थिति भी अलग नहीं है, जहां वोट जुटाने में विफल होने के कारण उसे हार माननी पड़ी. इसमें नेता विपक्ष के पद के लिए दावेदारों की फौज है. नेतृत्व एक नए आदिवासी नेता की तलाश में है.

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