वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः महागठबंधन बनाने के प्रयास
By वेद प्रताप वैदिक | Published: December 11, 2018 07:05 AM2018-12-11T07:05:28+5:302018-12-11T07:05:28+5:30
अब उत्तर प्रदेश में भाजपा के स्थायी सहयोगी राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी ने भी अपना हाथ खींच लिया है. यदि कल हिंदीभाषी राज्यों में भाजपा बहुत कम सीटों से जीती या हार गई तो यह महागठबंधन अपने आप महाबली बन जाएगा.
कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विरोधी दल आज एक होने की कोशिश कर रहे हैं. कैसी विडंबना है कि अटलजी के राज में 22 दल मिलकर सरकार चला रहे थे और लगभग उतने ही दल मिलकर अब मोदी की सरकार हटाने के लिए कमर कस रहे हैं. ऐसे-ऐसे दल भी आपस में जुड़ रहे हैं, जो एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन रहे हैं. जैसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी. कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी.
इन पार्टियों का प्रांतीय स्तर का एका कठिन है, फिर भी अखिल भारतीय स्तर पर वे एकता का प्रयास कर रही हैं. नवीन पटनायक, अखिलेश यादव और मायावती ने इस महागठबंधन से दूरी जरूर बना रखी है लेकिन यदि 2019 तक सीटों के बंटवारे उनके मन मुताबिक हो जाएं तो वे भी जुड़ जाएंगे.
अब उत्तर प्रदेश में भाजपा के स्थायी सहयोगी राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी ने भी अपना हाथ खींच लिया है. यदि कल हिंदीभाषी राज्यों में भाजपा बहुत कम सीटों से जीती या हार गई तो यह महागठबंधन अपने आप महाबली बन जाएगा. इसके बावजूद 2019 के चुनाव में भाजपा का हारना आसान नहीं है. इसलिए आसान नहीं है कि इस महागठबंधन में कौन नेता ऐसा है, जिसके दिल में प्रधानमंत्नी बनने की ख्वाहिश नहीं है?
इस गठबंधन में कई ऐसे नेता हैं जो सत्ताधारी रह चुके हैं. चलो, नेता के मुद्दे को छोड़ भी दें तो नीति के मुद्दे पर तो विपक्ष बिल्कुल एक नहीं है. उसके पास अपना कोई मुद्दा ही नहीं है. वह किसान असंतोष, नोटबंदी, जीएसटी आदि मुद्दों को भुनाना चाहता है. उसके पास वैकल्पिक भारत का कोई नक्शा नहीं है. उसके पास आपातकाल या बोफोर्स जैसा भी कोई मुद्दा नहीं है, जिसे वह मोदी के माथे पर चिपका सके. जबकि मोदी के तरकश में राम मंदिर जैसे कई तीर हैं. विपक्ष को नेता तो बाद में भी मिल सकता है लेकिन उसे नीति तो आज ही चाहिए.