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बदलाव जब दिखावे के लिए हो तो उसकी मूलभावना खत्म हो जाती है, JNU के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: July 6, 2018 06:09 IST

व्यक्ति का नाम उसके विचारों के साथ जुड़ा हुआ होता है। विचार कभी निर्विरोध नहीं हो सकते। ऐसे में जब किसी व्यक्ति का नाम सामने रखा जाता है तब उसके समर्थकों के साथ-साथ विरोधी भी सामने आ सकते हैं।

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अभी पिछले साल की ही बात है जब क़रीब पचास सालों से बेनाम खड़ी जेएनयू की दस मंजिली लाईब्रेरी बिल्डिंग अचानक से 'आम्बेडकर पुस्तकालय' में तब्दील कर दी गई। और अब इस साल पूरे कैम्पस में जहाँ-तहाँ सड़कों के पास 'नेताजी सुभाषचंद्र बोस मार्ग' और 'मेजर ध्यानचंद मार्ग' जैसी अनेकों नीली तख्तियाँ लग गई हैं जो उनके नामकरण कर दिए जाने की निशानी हैं। आगे शायद हॉस्टलों, मेसों और भवनों के भी नाम रखे जाएँ ! निज़ाम बदलने पर बदलाव होते हैं पर जब सिर्फ़ दिखावे के लिए अनौचित्यपूर्ण बदलाव हों तब यह अच्छा नहीं होता। बदलाव से कई बार किसी व्यवस्था कि मूल भावना ही ख़तम हो जाती है जो समाज के लिए ज़रूरी होती है।

हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने अपनी सोच के अनुरूप 'इंडियन नेशनल यूनिवर्सिटी' नाम से एक ऐसे विश्वविद्यालय की परिकल्पना की थी जहाँ भारत की उदार छवि को पुष्ट करने वाली शिक्षा दी जानी थी। देश के दूर-दराज़ के और आर्थिक-सामाजिक तौर पर पिछड़े वर्गों की यहाँ तक पहुँच हो सके इसके लिए इसकी व्यवस्था को पूरी तरह समाजवादी मॉडल दिया जाना था। आर्थिक सहित अन्य किन्हीं कारणों से यह परिकल्पना साकार होते हुए नेहरू देख नहीं सके। आगे उनके उत्तराधिकारियों लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने तत्परता दिखाते हुए इसे साकार किया और नाम दिया - 'जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय' प्रस्तावित 'आईएनयू' 'जेएनयू' हो गया। बाकि सब वैसा ही रखा गया जैसा नेहरू ने सोचा था। इस नए विश्वविद्यालय के पूरे कैम्पस को एक छोटा भारत का नमूना मान कर इसके चार हिस्से किए गए। पूरब में पूर्वांचल, पश्चिम में पश्चिमाबाद, उत्तरी हिस्सों को उत्तराखंड और दक्षिण में पड़ने वाली जगहों को दक्षिणपुरम का नाम दिया गया।

व्यक्ति का नाम उसके विचारों के साथ जुड़ा हुआ होता है। विचार कभी निर्विरोध नहीं हो सकते। ऐसे में जब किसी व्यक्ति का नाम सामने रखा जाता है तब उसके समर्थकों के साथ-साथ विरोधी भी सामने आ सकते हैं। रार-तकरार की सम्भावना भी बनी रहती है। ऐसे में कोई व्यक्ति निर्विवाद हो ही नहीं सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी पर भी पूरे देश को सहमति नहीं है। भारत जैसे बहुल समाज में हम ऐसी सर्वानुमति की उम्मीद भी नहीं कर सकते। ऐसे में इस तालीमगाह को व्यक्तिवाद से बचाया गया। इसके तमाम हिस्सों को ऐसे नाम दिए गए जो भारत देश की नदियों और पहाड़ों के नाम थे। जैसे पूर्वांचल क्षेत्र के हॉस्टल लोहित-सुबंसरी नाम के तो पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के क्रमशः साबरमती, पेरियार और जमुना के नामों पर रखे गए।

विश्वविद्यालय के अतिथिगृहों के नाम अरावली और अरावली इंटरनेशनल रखे गए। ये उचित ही था कि यहाँ पढ़ने वाले भारत के विविध क्षेत्रों-धर्मों जातियों और समाजों के छात्रों की अलग-अलग आकाँक्षाओं-अस्मिताओं को यहाँ की चीज़ों के व्यक्तिवादी नामकरण करके अलग-अलग तुष्ट करने की बजाए उन सबके लिए नदियों-पहाड़ों और भारत के सभी हिस्सों के नाम से नामकरण के साथ सहमति के एक ऐसे बिंदु को तलाशा जाए जहाँ व्यक्तिवाद का विवाद ही समाप्त हो जाए, सर्वानुमति बन सके। यहाँ ऐसा ही हुआ। पूरे देश के लिए यह मॉडल हो सकता था। इस मॉडल पर चलते हुए हम एक-दूसरे से अलग होने के तमाम  विभेदों को भूल मिल कर विकास पथ पर 'चरैवेति-चरैवेति' के नारे के साथ एक साथ चल सकते थे।

परन्तु आजकल अस्मिताओं की राजनीति का दौर है। माला की बजाए उसके अलग-अलग फूलों पर बल दिया जा रहा है। सहमति के विंदू खोजने की जगह भेद के तत्व तलाशे जा रहे हैं। बीती को बिसार आगे बढ़ने की बजाए इतिहास के उन अन्यायों को याद किया जा रहा है जो वर्तमान का मुँह खट्टा कर देते हैं। इन अस्मिताओं को उभारने का अपना चुनावी सुख है। गोलबन्द अस्मिताएँ सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए सबसे अधिक मुफ़ीद साबित हो रही हैं। ये आज ही शुरू हुआ है ऐसा नहीं है, सियासत की पुरानी आदत है। पर ये बात ज़रूर है कि आज इसकी गति तीव्रतम है। मगर अफ़सोस कि इसी के बहाने हम एक शानदार मॉडल खो रहे हैं जो एक स्वस्थ और सभ्य लोकतान्त्रिक समाज के तौर पर हमारे लिए बेहद लाभ का हो सकता था।

-अंकित दूबेपूर्व छात्र, भाषा साहित्य एवम संस्कृति अध्ययन संस्थानजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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