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भाजपा की आक्रामकता से बढ़ी राकांपा की चिंता, हरीश गुप्ता  का ब्लॉग

By हरीश गुप्ता | Updated: July 1, 2021 13:40 IST

अजित पवार के खिलाफ बीजेपी का खुला तीखा हमला. अचानक ऐसा लग रहा है कि ईडी देशमुख और उनके माध्यम से अन्य को  हिरासत में लेने की जल्दबाजी में हैं.

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ठळक मुद्देकेंद्रीय एजेंसी द्वारा ऐसी त्वरित कार्रवाई पहले कभी नहीं देखी गई थी. अजित पवार का नाम लेते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और उनके खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की.सूत्रों का कहना है कि महाराष्ट्र में बहुत कुछ पक रहा है.

ऐसा लगता है कि भाजपा ने राकांपा नेतृत्व के खिलाफ एक नया हमला शुरू कर दिया है. हाल की दो घटनाओं ने इस संबंध में ध्यान खींचा है.

 

पहला अनिल देशमुख के खिलाफ ईडी की कार्रवाई जिसने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार और अन्य को बार-बार उनके बचाव में सामने आने के लिए मजबूर किया और दूसरा, अजित पवार के खिलाफ बीजेपी का खुला तीखा हमला. अचानक ऐसा लग रहा है कि ईडी देशमुख और उनके माध्यम से अन्य को  हिरासत में लेने की जल्दबाजी में हैं.

एक केंद्रीय एजेंसी द्वारा ऐसी त्वरित कार्रवाई पहले कभी नहीं देखी गई थी. लेकिन झटका तब लगा जब महाराष्ट्र के भाजपा के शीर्ष नेताओं ने सचिन वाझे मामले में अजित पवार का नाम लेते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और उनके खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि महाराष्ट्र में बहुत कुछ पक रहा है और राजनीतिक विस्फोट कभी भी हो सकता है.

महाविकास आघाड़ी (एमवीए) ‘अव्यवहार्य’ दिख रही है. भाजपा आलाकमान को लग रहा है कि एनसीपी के साथ गठबंधन महाराष्ट्र या दिल्ली में उसके व्यापक हित में नहीं हो सकता है. 2019 के एक दिवसीय चमत्कारिक प्रयोग को भूल जाना ही बेहतर है. भाजपा को राकांपा पर जोरदार हमला करके अपना रास्ता खुद बनाना चाहिए. राकांपा के खिलाफ दोहरी कार्रवाई इसी रणनीति का हिस्सा है.

इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप शिवसेना के साथ भविष्य में कोई गठबंधन होगा या नहीं, यह देखना बाकी है. यह भी साफ तौर पर सामने आ रहा है कि पीएम मोदी ने अब महाराष्ट्र के मामलों की कमान अपने हाथ में ले ली है. दिल्ली में उद्धव ठाकरे के साथ उनकी निजी मुलाकात का मतलब कोई समझ नहीं पाया है. पीएम सरप्राइज देने के लिए जाने जाते हैं.

भाजपा का यूपी वाटरलू

भाजपा ने भले ही अगले फरवरी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया हो, लेकिन नेतृत्व बेहद चिंतित है क्योंकि इसके ऐतिहासिक परिणाम हो सकते हैं. कोई यकीन से नहीं कह सकता कि उत्तर प्रदेश में आगे क्या होगा. पश्चिम बंगाल के इतिहास में सबसे बदसूरत चुनावी लड़ाई में ममता की जोरदार वापसी के बाद विपक्ष पहले से ही उत्साहित है.

लेकिन यूपी पश्चिम बंगाल नहीं है. पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए भाषा सहित कई दिक्कतें थीं. भाजपा के शीर्ष प्रचारकों में से कोई भी स्थानीय भाषा से परिचित नहीं था. दूसरे, भाजपा ने किसी को अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश नहीं किया था, और गांवों में जमीनी स्तर पर पार्टी की कोई उपस्थिति नहीं थी. जबकि यूपी में भाजपा पहले से ही शासन कर रही है और योगी आदित्यनाथ एक तगड़े मुख्यमंत्री हैं. यूपी में उनका ग्राफ तब ऊपर चला गया जब उन्होंने कड़ा रुख दिखाया और हाल ही में दिल्ली में दबाव के आगे नहीं झुके.

दूसरे, भाजपा के पास स्थानीय नेताओं की भरमार है और बाहरी व्यक्ति का कोई ठप्पा नहीं लग सकता. प. बंगाल में भाजपा का मुकाबला ममता जैसी एक उग्र और व्यक्तिगत रूप से ईमानदार प्रतिद्वंद्वी से था, जबकि यूपी में विपक्षी नेताओं को सीबीआई, ईडी, आयकर आदि की जांच में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है.

लेकिन भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि अखिलेश यादव (समाजवादी पार्टी) धीरे-धीरे विपक्ष के एकक्षत्र स्थल के रूप में उभर रहे हैं. रालोद जैसी कई राज्यस्तरीय पार्टियां पहले से ही सपा से हाथ मिला चुकी हैं. यूपी में किसान समुदाय बदला लेने के लिए तैयार हो रहा है और उनमें ज्यादातर जाट और गुर्जर हैं.

एक नए प्रकार का मुस्लिम-अहीर-जाट-गुज्जर संयोजन उभर रहा है, जैसा कि चरण सिंह के दौर में देखा गया था. इस भारी ध्रुवीकृत परिदृश्य में, मायावती के अनुसूचित जाति के वोट बैंक का काफी क्षरण हो सकता है. इसी सिलसिले में भाजपा आलाकमान की रातों की नींद उड़ी हुई है. यहां तक कि भाजपा के वोट बैंक में छह से आठ प्रतिशत तक वोटों की गिरावट भी चुनाव का रुख बदल सकती है. नतीजे का असर जुलाई 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर पड़ेगा.

उत्तराखंड : नई मुसीबत

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को आलाकमान ने क्यों हटाया, यह रहस्य ही है. उधर तीरथ सिंह रावत को अपनी विधानसभा सीट चुनने में मुश्किल हो रही है. उन्हें 9 सितंबर से पहले विधायक निर्वाचित होना है क्योंकि उन्होंने 10 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. वे गंगोत्री या हल्द्वानी से चुनाव लड़ सकते हैं क्योंकि दोनों कोविड के कारण मौजूदा विधायकों के निधन के बाद खाली हैं.

त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी डोईवाला सीट छोड़ने को कहा जा सकता है और तीरथ सिंह वहां से चुनाव लड़ सकते हैं. मुख्यमंत्री द्वारा खाली लोकसभा सीट से त्रिवेंद्र सिंह चुनाव लड़ सकते हैं. लेकिन तीरथ सिंह मौजूदा प्रतिकूल राजनीतिक परिदृश्य में उपचुनाव लड़ने से डर रहे हैं. चुनाव आयोग चुप है और भाजपा आलाकमान ने भी मौन साध रखा है.

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