Mumbai Local Body Elections: अमित शाह ने भले ही पिछले दिनों मुंबई में स्थानीय निकाय चुनावों के बारे में बात की हो, लेकिन उनका असली संदेश महाराष्ट्र से कहीं आगे तक गया. यह संदेश भाजपा के हर उस क्षेत्रीय सहयोगी पर केंद्रित था जो अब भी मानता है कि एनडीए पर वह एहसान कर रहा है. अपने चिर-परिचित अंदाज में, शाह ने ‘ट्रिपल इंजन’ सरकार की वकालत करते हुए कहा कि भाजपा को अब महाराष्ट्र में किसी ‘बैसाखी’ की जरूरत नहीं है. एक पार्टी कार्यक्रम में की गई यह टिप्पणी इस बात का संकेत थी कि सहयोगियों पर निर्भरता के दिन अब लद गए हैं.
उन्होंने कहा कि भाजपा अपने बल पर स्थानीय चुनाव लड़ने के लिए तैयार है - यह उन लोगों के लिए एक स्पष्ट संकेत है जो भाजपा को अपने पर निर्भर मानते हैं. यह अलग बात है कि महायुति के सहयोगी कई नगरपालिकाओं में साथ मिलकर लड़ेंगे. एक जमाने में भाजपा शिवसेना के समर्थन पर निर्भर थी. वह जमाना अब बीत चुका है.
शिवसेना में फूट के बाद, चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को मान्यता दे दी, जो भाजपा के साथ सहज है. पिछले विधानसभा चुनाव में, भाजपा आवश्यक 145 में से 132 सीटों और 93 प्रतिशत स्ट्राइक रेट के साथ अकेले बहुमत के करीब पहुंच गई थी. सहयोगियों के बिना भी, वह सरकार बना सकती थी.
शाह की यह टिप्पणी एक साल बाद एक स्पष्ट चेतावनी के रूप में आई है कि भाजपा अपने सहयोगियों के बिना भी काम चला सकती है. महाराष्ट्र से मिले संदेश की गूंज दूसरी जगहों पर भी सुनाई दे रही है. बिहार और झारखंड में, भाजपा ने अपने सहयोगियों की छाया से बाहर आने की कोशिश की है-हालांकि अभी तक नाकाम रही है.
लेकिन शाह का बयान इस बात की पुष्टि करता है कि यह कोशिश जारी है. उन्होंने एक बार फिर स्पष्ट किया कि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है. ‘लेकिन मुख्यमंत्री पद पर औपचारिक फैसला चुनाव के बाद सभी विधायकों द्वारा एक साथ बैठकर लिया जाएगा.’ संदेश स्पष्ट है. सहयोगी दल अपना रास्ता खुद तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.
धनखड़ की वापसी : तूफान के बाद शांति
महीनों की अटकलों और चुप्पी के बाद, अब ऐसा लगता है कि जगदीप धनखड़ और ‘परिवार’ के बीच सब ठीक है. पूर्व उपराष्ट्रपति, जिन्होंने ‘स्वास्थ्य’ कारणों का हवाला देते हुए अचानक इस्तीफा दे दिया था, ने अपने उत्तराधिकारी के शपथ ग्रहण के लिए राष्ट्रपति भवन में फिर से प्रकट होने से पहले 53 दिनों तक एक कठोर चुप्पी बनाए रखी और एकांतवाद में चले गए.
लेकिन अब सब ठीक लगता है. पार्टी सूत्रों का कहना है कि धनखड़ ने चुप रहने का फैसला किया है, क्योंकि भाजपा के संगठन महासचिव बीएल संतोष और आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारी कृष्ण गोपाल ने उन्हें दिलासा दी है. जब वे अपना आधिकारिक आवास खाली कर रहे थे, तब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से उनसे संपर्क किया था.
धनखड़ जल्द ही लुटियंस दिल्ली में 34, एपीजे अब्दुल कलाम रोड पर अपने नए आवंटित टाइप - 8 बंगले में शिफ्ट हो सकते हैं. बंगले का चुनाव उनका अपना था, हालांकि आवंटन में स्वाभाविक तौर पर कुछ समय लगा. धनखड़ को उनकी पसंद का स्टाफ देने का आश्वासन दिया गया है और उन्हें 2 लाख रु. प्रति माह पेंशन मिलेगी, साथ ही एक निजी सचिव, एक अतिरिक्त सचिव, एक निजी सहायक, चार परिचारक, एक नर्सिंग अधिकारी और एक चिकित्सक भी मिलेंगे. इसके अलावा, उनके पिछले कार्यकाल उन्हें कई पेंशनों का हकदार बनाते हैं:
एक बार लोकसभा सांसद के रूप में 45000 रु. प्रति माह और विधायक के रूप में 42000 रुपए. पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल के रूप में उन्हें सचिवीय सहायता के लिए 25000 रु. की प्रतिपूर्ति का अधिकार है. अपने आवास की सुरक्षा, अधिकारों के निर्धारण और पार्टी के रास्ते फिर से खुलने के साथ, धनखड़ परिवार में वापस आ गए हैं.
दलितों में कांग्रेस की पैठ से मायावती चिंतित
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में उथल-पुथल मची हुई है. कभी मजबूत रहा उसका दलित वोट आधार अब दरक रहा है, और मायावती बढ़ती बेचैनी के साथ देख रही हैं क्योंकि कांग्रेस दलित मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है, जबकि 2024 में बसपा एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाई और उत्तर प्रदेश में उसका वोट शेयर घटकर सिर्फ 9.39% रह गया है - जो 2019 के आधे से भी कम है.
यहां तक कि उसका वफादार जाटव वोट, जिसे लंबे समय से अभेद्य माना जाता था, भी छिटक गया- कुछ हद तक समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन की ओर, और कुछ इलाकों में भाजपा की ओर. इस उथल-पुथल को और बढ़ाने का काम मायावती द्वारा अपने भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय समन्वयक पद से अचानक हटा देने से हुआ.
उत्तर प्रदेश में पिछली अप्रासंगिकता से त्रस्त कांग्रेस ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया है. 2024 के चुनावों में, उसने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर अपनी संख्या छह से बढ़ाकर 19 कर ली, जिसका श्रेय उसके आक्रामक ‘संविधान बचाओ’ अभियान को जाता है, जिसने आरक्षण पर भाजपा के रुख से चिंतित दलित मतदाताओं को प्रभावित किया.
इस क्षरण को भांपते हुए, मायावती अपनी विरासत को पुनः प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. अक्तूबर 2025 में लखनऊ में एक विशाल रैली में, उन्होंने समर्थकों को दलित वोटों को विभाजित करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे ‘बिकाऊ लोगों’ के प्रति आगाह किया और 2027 के उत्तर प्रदेश चुनावों में अकेले चुनाव लड़ने का संकल्प लिया. मायावती पार्टी का खोया हुआ प्रभाव फिर से पा सकेंगी या नहीं, यह अनिश्चित है. लेकिन एक बात स्पष्ट है: दलितों के बीच कांग्रेस के पुनरुत्थान ने मायावती को ऐसा झटका दिया है जैसा पहले कभी नहीं देखा गया.
भोजपुरी फिल्मों के सितारों से नीतीश की दूरी
बिहार विधानसभा चुनाव में लगभग हर बड़ी पार्टी ने कम से कम एक भोजपुरी फिल्मी हस्ती - अभिनेता, गायक या स्टार कलाकार - को मैदान में उतारा है. उन्हें न सिर्फ टिकट दिए गए हैं, बल्कि प्रचार में भी उनका जोरदार इस्तेमाल किया जा रहा है. भाजपा इस दौड़ में सबसे आगे है, लेकिन तेजस्वी यादव की राजद भी पीछे नहीं है और उसने खेसारी लाल यादव को टिकट दिया है.
चिराग पासवान की लोजपा ने सीमा सिंह को मैदान में उतारा था, हालांकि बाद में उनका नामांकन रद्द हो गया. प्रशांत किशोर की जन सुराज ने भी अभिनेत्री पंखुड़ी पांडे को मैदान में उतारा है. सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी ही अपवाद है जिसने एक भी अभिनेता या गायक को मैदान में नहीं उतारा है.
परंपरागत रूप से, जदयू के टिकट जमीनी कार्यकर्ताओं और संगठनात्मक चेहरों को मिलते हैं. लेकिन भाजपा ने गीत-संगीत के लिए मशहूर मैथिली ठाकुर को दरभंगा के अलीनगर से टिकट दिया है. पार्टी ने मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश लाल ‘निरहुआ’ को भी प्रचार में उतारा है.
ये फिल्मी सितारे और गायक जहां जोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं और न सिर्फ अपने लिए बल्कि दूसरे उम्मीदवारों के लिए भी भीड़ जुटा रहे हैं, वहीं नीतीश कुमार भोजपुरी ग्लैमर ब्रिगेड से साफ तौर पर दूर ही बने हुए हैं.