हेमधर शर्माहाल ही में मशहूर खगोलभौतिकीविद् और एयरोस्पेस इंजीनियर डॉ. विली सून, जिन्होंने हार्वर्ड और स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स में लंबे समय तक काम किया है, ने दावा किया कि गणित का फॉर्मूला ‘फाइन ट्यूनिंग तर्क’ ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है. फाइन ट्यूनिंग तर्क के अनुसार ब्रह्मांड में सारी चीजें इतनी सटीकता से हुई हैं कि अगर किसी चीज में हल्का सा भी फर्क आ जाता तो धरती पर जीवन संभव ही नहीं हो सकता था.
मजे की बात यह है कि जीवन में हमें सब कुछ रैंडम तरीके से होता नजर आता है. कई बार हमारे सामने सैकड़ों विकल्प होते हैं और कोई भी निर्णय लेना एक तरह से जुआ खेलने के समान लगता है. तो एक तरफ तो सब कुछ बेहद अनिश्चित दिखता है और दूसरी तरफ डॉ. सून कह रहे हैं कि सारी चीजें बेहद सटीकता से हो रही हैं!
अनिश्चितता के बीच निश्चितता के सिद्धांत को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है कि होने वाली संतान बेटी होगी या बेटा, यह तय करना हमारे हाथ में नहीं होता, फिर भी समाज में स्त्री-पुरुष का समान अनुपात बना रहता है (यह बात अलग है कि जांच करवाकर कुछ क्रूर लोग गर्भ में ही बेटी को मार देते हैं, जिससे कहीं-कहीं लिंगानुपात बिगड़ जाता है). तो क्या कोई ऊपर से ध्यान रखता है कि हर चीज में संतुलन बना रहे?
भौतिकी का क्वांटम सिद्धांत कहता है कि किसी भी कण की स्थिति और गति को एक साथ नहीं मापा जा सकता, अर्थात यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि किसी विशेष समय पर वह कण कहां होगा. कणों की यही विशेषता अनिश्चितता के सिद्धांत को जन्म देती है. दूसरी तरफ मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का कहना था कि ‘ईश्वर पासा नहीं खेलता’ अर्थात ब्रह्मांड अव्यवस्थित तरीके से नहीं चल रहा है. आखिर सच्चाई क्या है?
शायद नजदीक से देखने पर चीजें अनिश्चित दिखाई देती हैं लेकिन दूर से देखने पर वे एक व्यवस्था के तहत नजर आती हैं. इसे इस तरह से भी कहा जा सकता है कि हमें अपने कर्मों के चयन का विकल्प तो मिलता है लेकिन उसका फल तय होता है. चूंकि हम चीजों या घटनाओं को नजदीक से ही देखने के आदी होते हैं, इसलिए हर चीज अव्यवस्थित दिखाई देती है और हमें लगता है कि दूसरों की नजरों से छुपाकर (अर्थात छल-कपट के जरिये) हम इस अव्यवस्था से फायदा उठा सकते हैं. लेकिन ब्रह्मांड में सटीकता के नियम सुनिश्चित करते हैं कि सबका पाई-पाई का हिसाब हो.
सवाल यह भी है कि हमें ईश्वर पर विश्वास रखने-न रखने की जरूरत किसलिए है? मनुष्यों के अलावा और कोई प्राणी इस सवाल पर सिर नहीं खपाता. हम दुनिया के सबसे बुद्धिमान प्राणी हैं, लेकिन इस बुद्धिमत्ता की कीमत शायद हमने सहजता को खोकर चुकाई है! हमारे पुरखे जिनसे भी कुछ लेते थे - चाहे वे सूरज-चांद हों, पेड़-पौधे या नदी-पहाड़ - दाता अर्थात देवता मानकर उनकी पूजा करते थे. यह अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का तरीका था. लेकिन धीरे-धीरे शायद हम स्वार्थी बनकर कृतघ्न होते गए (कृतज्ञ होने के बजाय लेने को अपना अधिकार समझने लगे) और देवता या ईश्वर का सहज अर्थ ही भूलते गए!
अब जब पता चल रहा है कि सृष्टि के नियमों का रत्ती भर भी दुरुपयोग नहीं किया जा सकता तो हम चाहे आस्तिक हों या नास्तिक, क्या स्वेच्छा से अनुशासित होना सीखेंगे?