Maratha Reservation Manoj Jarange Patil Maratha Morcha: महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में तीन दिन चले आरक्षण आंदोलन के बाद अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने हैं. एक तरफ आंदोलनकारी खुशियां मना रहे हैं, वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) अपना हक घटने की चिंता में नाराज नजर आ रहा है. इसके बीच मुंबई का वह वर्ग भी है, जो महानगर में आंदोलन से बिगड़ती स्थितियों से परेशान था और उसे आगे न दोहराने की अपेक्षा व्यक्त कर रहा है. आरक्षण को लेकर प्रशासनिक स्तर पर संतोषजनक कार्रवाई को देखकर मराठा आंदोलनकारी जहां प्रसन्न हैं तो उन्हें बरगलाने के लिए भी अनेक स्तर पर मुहिम चल रही है, जिसका उद्देश्य समाज के एक वर्ग में असंतोष पैदा करना है. सामाजिक खुशी और गम के बीच राजनीति का खेल भी श्रेय देने-लेने में चलाया जा रहा है,
जिसको लेकर राज्य सरकार संयम से निपट रही है. किंतु इसमें कोई दो-राय नहीं है कि सामाजिक चिंताएं और समस्याएं राजनीति को पल-पल बदल रही हैं. पक्ष-विपक्ष की भाषा में परिवर्तन आ रहा है. कहीं विरोध के चेहरे नए हैं और कहीं नए संकट मोचक उभर रहे हैं. चालू सप्ताह के आरंभ में मराठा आरक्षण आंदोलन जैसे ही मुंबई पहुंचा,
वैसे ही यह माना गया कि गणेशोत्सव के बीच यह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पर भारी पड़ेगा, क्योंकि इस बार अधिक तैयारी के साथ आंदोलनकारी पहुंचे थे. पहले मुंबई उच्च न्यायालय ने सख्ती दिखाते हुए आंदोलनकारियों को महानगर में आने की अनुमति नहीं दी. बाद में उन्हें एक दिन में ही मुंबई खाली करवाने का आदेश सुना दिया.
इसके बीच राज्य सरकार ने संयम दिखाते हुए अदालत और आंदोलनकारियों के साथ संवाद से ही समस्या को सुलझा लिया. राज्य सरकार ने आंदोलन के नेता मनोज जरांगे की आठ में से करीब 6 मांगें मान लीं और तत्काल राज-पत्र(जीआर) निकाल दिया. मराठा आंदोलनकारी अपनी मांगें पूरी होने पर देर रात तक मुंबई के आजाद मैदान और आस-पास के इलाके खाली कर गंतव्य की ओर लौट गए.
कुछ 24 घंटे में ही सब कुछ घटा और समूचे विपक्ष को जोर का झटका दे गया, जो आंदोलन को हवा देने की कोशिश में था. आंदोलन के आरंभ में मुख्यमंत्री फडणवीस ने जरांगे के सीधे प्रहारों पर भी संयम का परिचय दिया. मुंबई की परिस्थितियों को देख सूझ-बूझ दिखाई. फडणवीस सिर्फ यही कहते रहे कि वह मराठा विरोधी नहीं हैं.
अंत में राज्य सरकार द्वारा हैदराबाद गजट को मानने के साथ उन्होंने अपनी बात सही साबित कर दिखाई. नए अध्यादेश से मराठवाड़ा में बड़ी संख्या में मराठा कुनबी हो जाएंगे, जो पहले से ओबीसी में हैं. इस निर्णय तक मुख्यमंत्री ने कुशलता के साथ मराठा नेताओं का प्रतिनिधिमंडल बनाया, जिसमें भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल के नेतृत्व में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(अजित पवार गुट) के मंत्री माणिकराव कोकाटे, भाजपा के मंत्री शिवेंद्र राजे भोसले, शिवसेना(शिंदे गुट) के मंत्री उदय सामंत और भाजपा के मंत्री जय कुमार गोरे को शामिल किया.
इसी ने राज्य सरकार और आंदोलनकारियों के बीच मध्यस्थता कर आंदोलन समाप्त करवाया. मांगें मानने के साथ सभी मराठा मंत्रियों को जरांगे के पास भेजने की रणनीति से मुख्यमंत्री फडणवीस ने उस सोच को भी परास्त किया, जिसमें उन्हें मराठा विरोधी कहा जा रहा था. स्वाभाविक है कि राज्य सरकार ने आंदोलन से जुड़ी सभी आशंकाओं को समय रहते समाप्त करा दिया.
अब सवाल विपक्ष के समक्ष ही आ गया कि वह किसके पक्ष में जा खड़ा हो? शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट ने आरक्षण का मामला सुलझाने का श्रेय मुख्यमंत्री फडणवीस को दे दिया, क्योंकि वह उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के पक्ष में बोलने से कतराते हैं. दूसरी ओर राकांपा शरद पवार गुट ने आंदोलन के पीछे उनका हाथ होने के आरोप को अपनी ताकत मान कह दिया कि राकांपा शरद पवार गुट कमजोर नहीं हुआ है, यह सत्ता पक्ष के नेता भी मान रहे हैं. सत्ता पक्ष तथा विपक्ष के अलावा एक और बड़ा तबका था, जो खुद को मराठा समाज का सबसे बड़ा पैरोकार मानता था.
पूरे आंदोलन में उसकी पूछ-परख नहीं होने से अब वह मराठा समाज को गुमराह करने के प्रयासों में जुट गया है. उसके अपने आधारों से वह सरकार के प्रयासों को विफल मान रहा है और लाभ की संभावना से इंकार कर रहा है. सोशल मीडिया पर चल रहे प्रचार और दुष्प्रचार के बीच आंदोलनकारी समाज के मन में शंकाएं उठना स्वाभाविक है.
ठीक उसी प्रकार जैसे कि ओबीसी समाज के मन में चिंताएं उभरी हैं. उसे समझाने और बहकाने के प्रयास जारी हैं. इन्हीं में एक वर्ग आंदोलन के दौरान मुंबई के बिगड़े हालात पर चिंता जता रहा है. उसके अनुसार महानगर का एक संभ्रांत वर्ग ऐसे आंदोलन को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है. किंतु यह सामाजिक चिंता का विषय राजनीति के लिए पर्याप्त खुराक दे चुका है.
निश्चित ही राज्य की सामाजिक चिंताएं और समस्याएं राजनीति के तराजू पर जब-जब तौली जाएंगी, तब-तब उनसे कहीं खुशी, कहीं गम की स्थितियां बनेंगी. आवश्यकता समाज में हर दृष्टि से प्रत्येक वर्ग का संतुलन बनाए रखने की है. जिसका आधार चुनावी मत से अधिक निजी जरूरतों और अन्याय से निर्धारित किया जा सकता है.
दुर्भाग्यवश इन्हीं बातों को कभी नजरअंदाज और अधिक समय तक लंबित रखने से परेशानियां समाधान की सीमाओं से बाहर चली जाती हैं. समता और समानता देश के ताने-बाने का आधार होने के बावजूद कागजों से वास्तविकता का चेहरा बनने में अभी-भी समय लगता है. राजनीति समस्याओं को सुलझाने से अधिक नेताओं में उलझने में व्यर्थ हो जाती है.
जिसका परिणाम आंदोलनों के रूप में सामने आता है, जिन्हें राजनीतिक बनाने के प्रयास होते हैं. किंतु मराठा आरक्षण आंदोलन ने अभी तक राजनीतिक चोला नहीं पहना है. इसीलिए यह सामाजिक चिंताओं को सीधे सतह पर ला रहा है. अब राजनीतिक स्तर पर भी समीकरणों को बदलने से अधिक समस्याओं का सामना करना होगा. अन्यथा आंदोलन चलते रहेंगे और उनके लाभ-हानि पर सवाल उठते रहेंगे.