BLOG: मुझे भी 17 महीनों तक कारावास भुगतना पड़ा

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: June 26, 2018 17:36 IST2018-06-26T17:36:30+5:302018-06-26T17:36:30+5:30

Blog M venkaiah naidu: आपातकालीन दिनों में मुझे कई कड़वे अनुभव हुए. विश्वविद्यालय के छात्न के रूप में मैंने अपने वरिष्ठों और छात्न-नेताओं के साथ सरकारी नीतियों का विरोध किया

M venkaiah naidu write a Blog on Emergency 25 Jun 1975 – 21 Mar 1977 | BLOG: मुझे भी 17 महीनों तक कारावास भुगतना पड़ा

BLOG: मुझे भी 17 महीनों तक कारावास भुगतना पड़ा

एम. वेंकैया नायडू( गाजियाबाद) 

26 जून:  हेबियस कार्पस केस (बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला) के नाम से विख्यात अगस्त 1976 के ए.डी.एम., जबलपुर और शिवकांत शुक्ल के बीच अदालती मामले में अटॉर्नी जनरल निरेन डे ने सर्वोच्च न्यायालय को स्पष्टीकरण दिया कि यदि कोई पुलिस अधिकारी, चाहे अपनी व्यक्तिगत शत्नुता के कारण क्यों न हो, किसी नागरिक पर गोली चलाकर उसकी जान लेता है, तो भी उसे अदालती तौर पर क्षतिपूर्ति दिलाने अथवा उसके संबंधियों को आश्रय दिलाने का कोई प्रावधान नहीं है. केंद्र सरकार की ओर से यह स्पष्टीकरण सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया.

न्यायाधीश एच.आर. खन्ना ने इस पर अपनी असहमति जताई और बाकी चार न्यायाधीशों ने केंद्र सरकार के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं किया, सिर्फ चुप्पी साध ली. ऐसे थे आपातकाल के काले दिन. लोकतंत्न के चार स्तंभों में से एक संचार माध्यमों की दशा आपातकालीन दिनों में बहुत दयनीय बनी. नागरिकों के मूल अधिकारों का समर्थन करने और सरकार की गलत नीतियों का खंडन करने के दायित्व को भूलकर मीडिया ने प्रशासन की तानाशाही के सामने घुटने टेक दिए.   रामनाथ गोयनका के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘द स्टेट्समेन’ जैसे समाचारपत्नों ने सरकारी नीतियों का विरोध किया. बाद में  लालकृष्ण आडवाणी ने उस समय के पत्नकारों की आलोचना करते हुए कहा कि ‘मीडिया को झुकने को कहा, तो वह रेंगने लगे.’

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यदि कोई पुलिस अधिकारी, अपनी निजी शत्नुता के कारण किसी भी नागरिक पर गोली चलाकर उसकी जान ले लेता है, तो सर्वोच्च न्यायालय भी इस अन्याय के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता और मीडिया भी कुछ नहीं कर सकती. आपातकालीन दिनों में देश के नागरिकों को जो अनुभव प्राप्त हुए, उनसे सबक सीखने योग्य कई   बातें हैं. सिर्फ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए व्यक्ति जिंदा नहीं रहता. साधारण व्यक्ति भी स्वतंत्नता और मूल अधिकारों के महत्व से परिचित है, इन अधिकारों से वंचित होने पर वह व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर बैठता है. चुनावों में अशिक्षित, ग्रामीण एवं गरीब लोगों ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर आपातकाल की घोषणा करने वालों को सबक सिखाया.

21 मार्च 1977 को जनता ने लोकतंत्न के सच्चे समर्थकों को विजयी बनाया. इन इक्कीस महीनों में एक अंधा युग बीता, मूल्यांधता, मोहांधता और तानाशाही के दुष्परिणामों से हम परिचित हुए. इन काले दिनों और सरकार के काले कारनामों का पुनश्चरण कर हमें लोकतंत्न को खतरे में डालने वाले तथ्यों पर व्यापक तौर पर विचार-विमर्श करना चाहिए. हमें सिर्फ रोटी नहीं चाहिए, हमें जीने की स्वतंत्नता चाहिए, वाक् स्वतंत्नता चाहिए. इसके अभाव में मनुष्य का जीवन निर्थक है.

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आपातकालीन दिनों में मुझे कई कड़वे अनुभव हुए. विश्वविद्यालय के छात्न के रूप में मैंने अपने वरिष्ठों और छात्न-नेताओं के साथ सरकारी नीतियों का विरोध किया. मुझे सत्नह महीनों तक कारावास भी भुगतना पड़ा. कारावास में नेताओं के साहचर्य के अनुभवों का मेरे जीवन पर व्यापक प्रभाव रहा. लोगों की समस्याओं, राजनीतिक गतिविधियों, सरकारी नीतियों और विकास की योजनाओं पर अनुभवी नेताओं से विचार-विमर्श कर मुझे सीखने के कई अवसर प्राप्त हुए. तब से लोकतंत्न का समर्थन करने और मूल अधिकारों को सुरक्षा देने के पक्ष में मैंने अपनी योजनाओं को आचरणबद्ध तरीके से सफल बनाने का प्रयत्न किया और करता रहा.

1977 के बाद जिन नागरिकों का जन्म हुआ, वह वर्तमान समाज का बड़ा हिस्सा हैं. उन्हें देश के इतिहास और आपातकाल की घोषणा के कारणों और उसके परिणामों के बारे में जानने की आवश्यकता है। देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डालने की साजिश का हवाला देकर आपातकाल की घोषणा की गई थी. जबकि वास्तव में लोग नेताओं के भ्रष्टाचार से त्नस्त हो चुके थे और मुक्ति के लिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की जोरदार मांग कर रहे थे. इस दिशा में देशभर में जोर-शोर से कई प्रयत्न हो रहे थे. संयोगवश तभी इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्नी के चुनाव को अवैध घोषित करने का फैसला सुनाया. एक सामान्य न्यायाधीश ने इतना साहस कैसे किया? इसके समाधान के लिए न्याय-व्यवस्था को ही  संविधान और चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप और समीक्षा करने के अधिकार से वंचित कर दिया और आपातकाल की घोषणा की गई. प्रत्येक संदर्भ में नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा के कर्तव्य को भुलाकर उच्च स्तर पर गलत निर्णय लेकर देश को अंध-तमस में धकेला गया. ऐसा करने वालों की घोर निंदा करनी ही चाहिए.

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आपातकाल के दिनों में संपूर्ण देश कारागार बन गया. विपक्षी दलों के सभी नेताओं को गिरफ्तार किया गया. जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जार्ज फर्नाडीस, चरण सिंह, मोरारजी देसाई, नानाजी देशमुख, मधु दंडवते, रामकृष्ण हेगड़े, सिकंदर बख्त, एच.डी. देवगौड़ा, अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर, रामविलास पासवान, डॉ. सुब्रrाण्यम स्वामी, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार आदि नेताओं पर आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डालने के आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया. तीन लाख से अधिक नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कारावास भुगतना पड़ा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाला साहब देवरस भी इससे अछूते नहीं रहे. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने अज्ञातवास में रहकर आपातकाल के विरुद्ध जन-आंदोलनों का नेतृत्व किया.

आपातकाल की घोषणा और उसके परिणामों ने देश की लोकतांत्रिक सरंचना के भविष्य पर कई प्रश्न-चिह्न् लगा दिए. लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ. इस प्रकार की अमंगलकारी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देने का देश ने प्रण लिया. हमें आपातकालीन काले दिनों के कटु अनुभवों का बारंबार स्मरण करना चाहिए. विशेषत: युवा भारत को देश के राजनीतिक इतिहास के उन काले पृष्ठों तथा तानाशाही ताकतों के बारे में जानने की आवश्यकता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जब भी मुझे निराशा हाथ लगती है, तब मैं इतिहास के पन्ने पलटकर सत्य और प्रेम की जीत को दोहराने वाले तथ्यों का स्मरण कर लेता हूं. सच है कि समय-समय पर स्वयं को अपराजेय समझने वाले कई आततायी उत्पीड़कों ने सत्य के सामने अंतत: अपने घुटने टेक दिए.
हमें जो कटु अनुभव प्राप्त हुए, उनसे शिक्षा-ग्रहण करने की आवश्यकता है, ताकि नव-भारत के सपने पूरे हो सकें.

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