कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग:‘उदंत मार्तंड’ की संघर्ष गाथा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 4, 2019 13:57 IST2019-12-04T13:57:09+5:302019-12-04T13:57:09+5:30
हिंदी की पत्न-पत्रिकाओं के लिहाज से आज, उदंत मार्तंड के अवसान के 192 साल बाद की स्थिति पर गौर करें तो भी, कोई दावा कुछ भी क्यों...

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग:‘उदंत मार्तंड’ की संघर्ष गाथा
चार दिसंबर हिंदी पत्नकारिता के इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण तिथि है- अलबत्ता उपेक्षित और तिरस्कृत. कोलकाता से प्रकाशित हिंदी का पहला समाचार पत्न ‘उदंत मरतड’ 1827 में इसी दिन असमय ही ‘अस्ताचल जाने’ को विवश हुआ था. उसे महज 19 महीनों की उम्र नसीब हुई थी क्योंकि वह जिन हिंदुस्तानियों के भविष्य की चिंता करता था, तब उनमें इतनी भी जागरूकता नहीं थी कि वह उसके बूते पल-बढ़ सकता.
हिंदी की पत्न-पत्रिकाओं के लिहाज से आज, उदंत मार्तंड के अवसान के 192 साल बाद की स्थिति पर गौर करें तो भी, कोई दावा कुछ भी क्यों न करे, खालिस जनजागरूकता के बूते पत्नों का प्रकाशन बेहद टेढ़ी खीर बना हुआ है. ऐसे में ‘उदंत मार्तंड’ और उसके संपादक युगलकिशोर शुक्ल का बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष और कर्तव्यपालन का मार्ग न छोड़ना उनकी प्रेरणा हो सकता है.
17 मई, 1788 को कानपुर में जन्मे युगलकिशोर शुक्ल ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी के सिलसिले में कोलकाता गए.
वहां वकील बनने के बाद उन्होंने ‘हिंदी और हिंदी समाज’ कहें या ‘हिंदुस्तानियों’ के उत्थान के उद्देश्य से ‘उदंत मार्तंड’ नाम से हिंदी का एक साप्ताहिक निकालने की जुगत शुरू की. ढेर सारे पापड़ बेलने के बाद गवर्नर जनरल की ओर से उन्हें 19 फरवरी, 1826 को इसकी अनुमति मिली, जिसके बाद 30 मई, 1826 को उन्होंने कोलकाता से हर मंगलवार उसका प्रकाशन शुरू किया. लेकिन नाना दुश्वारियों से दो-चार यह पत्न अपनी सिर्फ एक वर्षगांठ मना पाया और इसके 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे.
इसके कई कारण थे. एक तो हिंदी भाषी राज्यों से बहुत दूर होने के कारण उसके लिए ग्राहक या पाठक मिलने मुश्किल थे. दूसरे, मिल भी जाएं तो उसे उन तक पहुंचाने की समस्या थी. गोरी सरकार ने युगलकिशोर को साप्ताहिक छापने का लाइसेंस तो दे दिया था, लेकिन बार-बार के अनुरोध के बावजूद डाक दरों में इतनी भी रियायत देने को तैयार नहीं हुई थी कि वे उसे थोड़े कम पैसे में अपने सुदूरवर्ती दुर्लभ पाठकों को भेज सकें. सरकार के किसी भी विभाग को उसकी एक प्रति भी खरीदना कबूल नहीं था. ऐसे में चार दिसंबर, 1827 को प्रकाशित विदाई अंक में इसके अस्ताचल जाने की मार्मिक घोषणा उन्हें करनी पड़ी.