Jayaprakash Narayan: लोकनायक जयप्रकाश नारायण की लम्बी जीवन यात्रा में लोक के लिए प्रेरक प्रसंगों की कोई कमी नहीं है. लेकिन हमारी आज की युवा पीढ़ी के कम ही सदस्य जानते होंगे कि उनके सार्वजनिक जीवन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उनके निधन से दो सौ दिन पहले 23 मार्च, 1979 को घटित हुआ था. दुर्भाग्यपूर्ण होने के बावजूद यह प्रसंग इस अर्थ में दिलचस्प है कि उसने उन्हें इस देश तो क्या, दुनिया का इकलौता ऐसा नेता बना दिया, जिसे उसके देश की संसद ने उसके जीते जी ही श्रद्धांजलि दे डाली थी!
उस रोज दरअसल हुआ यह कि जब वे अपने गुर्दों की लंबे अरसे से चली आ रही बीमारी से पीड़ित होकर मुंबई के जसलोक अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, सरकार नियंत्रित आकाशवाणी ने दोपहर बाद एक बजकर दस मिनट पर अचानक अपना नियमित प्रसारण रोककर खबर दे दी कि उनका निधन हो गया है.
फिर जैसे इतना ही काफी न हो, इस खबर की पुष्टि के बगैर तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष केएस हेगड़े ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के हवाले से लोकसभा को भी उनके निधन की सूचना दे डाली और श्रद्धांजलियों व सामूहिक मौन के बाद सदन को स्थगित कर दिया.
सोचिए जरा, यह लोकनायक के ही प्रयत्नों से देश की सत्ता से कांग्रेस की पहली बार संभव हुई बेदखली के बाद सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार का कारनामा था.खबर सुनकर लोग अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए जसलोक अस्पताल पहुंचने लगे तो जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर अस्पताल में ही थे.
उन्होंने बाहर आकर लोगों से क्षमायाचना की और बताया कि लोकनायक अभी हमारे बीच हैं. हम जानते हैं कि 23 मार्च को समाजवादी नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया की जयंती मनाई जाती है और ऐन इस जयंती के ही दिन जेपी को जीते जी श्रद्धांजलि की शर्मनाक विडंबना गले आ पड़ी तो मोरारजी सरकार को स्थगन के चार घंटे बाद ही फिर से लोकसभा की बैठक बुलानी पड़ी.
विपक्षी कांग्रेस के सांसदों ने इसको लेकर उसकी खूब ले दे की. बहरहाल, जीते जी मिली संसद की इस ‘श्रद्धांजलि’ के बाद जेपी दो सौ दिनों तक हमारे बीच रहे और 8 अक्तूबर, 1979 को इस संसार को अलविदा कहा, जिसके लंबे अरसे बाद 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया.
बिहार के सिताब दियारा में 11 अक्तूबर 1902 को जन्म लेने वाले जयप्रकाश नारायण ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और जेल भी गए. बाद में 19 अप्रैल, 1954 को बिहार के गया में अपना जीवन सर्वोदय व भूदान आंदोलनों के लिए समर्पित कर दिया और 1957 से ‘राजनीति’ के बजाय ‘लोकनीति’ करने लगे थे.
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल तक वे इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि भ्रष्टाचार, बेरोजगारी व अशिक्षा आदि की समस्याएं इस व्यवस्था की ही उपज हैं और तभी दूर हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और, सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए ’सम्पूर्ण क्रांति’ आवश्यक है. उनकी संपूर्ण क्रांति में सात क्रांतियां शामिल थीं-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति.