SRO Antariksha: अंतरिक्ष एक कठिन जगह है. वैसे तो बीते कुछ दशकों से चंद्रमा और मंगल ग्रह पर इंसानी बस्तियां बसाने का एक और सपना कुछ वैज्ञानिक और उद्योगपति देख रहे हैं. कई अभियानों में मानव-निर्मित उपग्रह चांद के पार मंगल, शुक्र, नेपच्यून आदि के नजदीक होकर सौरमंडल की बाहरी परिधियों तक पहुंच चुके हैं. चंद्रमा पर खुद उतरने का करिश्मा भी आधा दर्जन बार किया जा चुका है. लेकिन इतने अधिक पराक्रम करने के बावजूद अंतरिक्ष तक जाना और वापस लौटना कितना मुश्किल है, सुनीता विलियम्स और उनके सहयोगी बुच विल्मोर की आठ दिन के स्थान पर नौ महीने बाद अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) से हुई वापसी इसकी मिसाल है. मान लीजिए कि अचानक एक दिन बहुमंजिला इमारत की किसी लिफ्ट में एक व्यक्ति कुछ समय के लिए फंस जाता है.
तो इतने भर से उसकी हालत पस्त हो जाती है. अगर लिफ्ट में आधा घंटे भी कोई फंसा रह जाए तो इसे बड़ा संकट माना जाता है. ऐसे में सोचा जा सकता है कि आईएसएस पर नौ महीने तक अटके रह जाने पर सुनीता और बुच को कितना जीवट दिखाना पड़ा होगा. पर सवाल केवल उनके वहां फंस जाने का नहीं है.
बल्कि यह है कि जिन सुदूर लंबी अंतरिक्ष यात्राओं और अंतरिक्ष पर्यटन का सपना देखा जा रहा है, अब क्या उन पर सवाल नहीं खड़े होंगे. खास तौर से उस दौर में जब दुनिया की कई निजी कंपनियां अंतरिक्ष पर्यटन की अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाने के पराक्रम कर रही हैं, यह एक अहम सवाल बन गया है कि क्या होगा जब कोई पर्यटक किसी कारण से लंबे समय तक अंतरिक्ष में फंस जाए.
असल में, जब कोई व्यक्ति स्पेसक्राफ्ट पर सवार होकर पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर कदम रखता है, तो वह अंतरिक्ष का बाशिंदा बन जाता है. और ऐसा अंतरिक्ष यात्री बनने की कठिन शर्तें होती हैं. जैसे उसमें किसी विपरीत परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाए रखते हुए दबाव में सही फैसला लेने की क्षमता होनी चाहिए.
मजबूत कद-काठी और अच्छी सेहत के बावजूद कई चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें झेलना हर किसी के वश में नहीं होता है. जैसे पृथ्वी पर तो हर कोई ऑक्सीजन के स्वाभाविक घेरे में रहता है, लेकिन अंतरिक्ष में तो बनावटी सांसों (सिलेंडर में भरी ऑक्सीजन) से काम चलाना पड़ता है. इसके अलावा खुले अंतरिक्ष में मौजूद रेडिएशन का सीधा सामना करना पड़ता है.
इन्हीं चीजों का असर होता है कि अंतरिक्ष यात्री हर वक्त मिचली (मतली) का अहसास करते हैं. उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, जिससे बीमारियों से लड़ना मुश्किल हो जाता है. आंखें और हड्डियां कमजोर हो जाती हैं. सिर पर गर्दन टिकाए रखना मुश्किल होता है. गुरुत्वाकर्षण नहीं होने पर पैरों का कोई काम नहीं रहता. इससे टांगें इतनी कमजोर व पतली हो जाती हैं कि पृथ्वी पर लौटने के बाद महीनों उन्हें व्हीलचेयर या छड़ी का अनिवार्य रूप से सहारा लेना पड़ता है.