अभिलाष खांडेकर
जरा कल्पना कीजिए कि हाल के युद्ध के बाद पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु में कोई वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री किसी महिला सैन्य अधिकारी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करता तथा सशस्त्र बलों का खुलेआम अपमान करता तो देशभर में आज क्या हो रहा होता?
एक बड़े प्रदेश के जिस मंत्री ने यह कारनामा किया, उनके वरिष्ठ सहयोगी और उसी राज्य के उपमुख्यमंत्री ने भी अपने कनिष्ठ मंत्री के जैसा ही अपराध किया है. राज्य के मुख्यमंत्री को पार्टी के बहुचर्चित आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर दिल्ली ने नियुक्त किया था.
काफी शक्तिशाली कहे जाने वाले मुख्यमंत्री ने न तो अनुशासनहीन मंत्री के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की और न ही सार्वजनिक रूप से कुछ कहा, जब तक कि उच्च न्यायालय ने महिला सैन्य अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी और सशस्त्र बलों के खिलाफ अपमानजनक सार्वजनिक भाषण का स्वतः संज्ञान नहीं लिया. महिला सैन्य अधिकारी की कोई गलती न होने पर भी उन्हें एक अनुचित विवाद में घसीटा गया है जो दुःखद है. परंतु किसे उनकी चिंता है?
बहरहाल, इन दोनों ‘माननीय’ मंत्रियों ने भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में थमे युद्ध के मद्देनजर ऐसी घिनौनी टिप्पणी की है कि उन्हें तुरंत मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया जाना चाहिए था. अब वे दलील दे रहे हैं कि यह ‘जुबान फिसलने’ की वजह से हुआ या पत्रकारों ने उनके बयानों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया, लेकिन यह सिर्फ एक कमजोर बहाना है.
आदिवासी विजय शाह एक अजीबोगरीब मंत्री हैं. उन्होंने कर्नल कुरैशी के बारे में जो कुछ कहा, अगर ठीक से विश्लेषण किया जाए तो उनके बयान देशद्रोह की हद तक जाते हैं. जिस राजनीतिक दल से वे जुड़े हैं, उसने अब तक अदालती आदेश की आड़ ली है और चारों तरफ अभूतपूर्व आलोचना तथा उनके खिलाफ एफआईआर के बावजूद मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिमंडल से नहीं हटाया है.
उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने जबलपुर में कहा कि पाकिस्तान पर ‘विजय’ के बाद देश की सेना और उसके जवान प्रधानमंत्री के चरणों में नतमस्तक हैं.
अब बात उनके दल की करते हैं. दोनों नेता दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा से हैं, जिसकी केंद्र में 11 साल से सरकार है और कई राज्यों में भी सरकारें हैं. वे विपक्षी दल से नहीं हैं. दोनों मध्य प्रदेश से हैं, जहां से एक के बाद एक ये परेशान करने वाले बयान आए, जिसने सबको हिला दिया लेकिन भाजपा नेताओं के कान में जूं तक नहीं रेंगी. विजय शाह की जबान खराब है, यह सब जानते हैं और शायद आदिवासी होने के कारण वे मंत्रिमंडल में बने हुए हैं. संयोग से, माननीय भारतीय राष्ट्रपति भी आदिवासी हैं और महिला हैं.
अगर देश और सशस्त्र बलों के प्रमुख के तौर पर आधिकारिक तौर पर उनके संज्ञान में यह मामला लाया जाता है, तो क्या वे इसे बर्दाश्त करेंगी? मुझे संदेह है.
भाजपा ने जानबूझकर कार्रवाई से परहेज किया, लेकिन मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने शानदार कदम उठाया. शायद इतिहास में अपनी तरह के इस पहले मामले में राज्य के पुलिस महानिदेशक कैलाश मकवाना को मंत्री के खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश दिया. न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और अनुराधा शुक्ला की उच्च न्यायालय की पीठ ने स्वयमेव संज्ञान लेते हुए कहा कि विजय शाह की टिप्पणियां ‘अपमानजनक’ थीं और खतरनाक भी. इसके बाद जाकर इंदौर के पास मानपुर ( जहां शाह ने वह भाषण दिया) में कमजोर एफआईआर दर्ज की गई, जिसमें १२ मई के भाषण का जिक्र ही नहीं था.
दोषपूर्ण और कमजोर एफआईआर नेता को बचाने का प्रयास थी. साफ तौर पर यह मंत्री की मदद करने के लिए लिखी गई थी, जो अगर उच्च न्यायालय में अपील करते तो तत्काल बच निकलते. एक ईमानदार, निडर महानिदेशक भारी राजनीतिक दबाव में काम कर रहे थे जिससे उन्होंने दुष्ट मंत्री को दंडित करने के हाईकोर्ट के इरादों को जानते हुए भी पेशेवर ढंग से काम नहीं किया.
अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा है जिससे भाजपा के नैतिक मूल्यों की पोल खुल गई. भाजपा को चाहिए था कि वह तुरंत जांच शुरू कर देती और उस मंत्री को बर्खास्त कर देती, जिसके विभाग का प्रशासन और प्रदर्शन हमेशा औसत से नीचे ही रहा है. यदि दोनों मंत्री टीएमसी या डीएमके के सदस्य होते तो निश्चित मानिए कि भाजपा उनके खिलाफ जोरदार हमला बोलती और तत्काल इस्तीफे की मांग करती; यात्राएं निकालकर पूरे भारत में (बेरोजगार) युवाओं को संगठित करती और दोषी मंत्रियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करती.
भाजपा अन्य पार्टियों को बदनाम करने के लिए उच्च नैतिक मापदंड की दुहाई देने से कभी भी नहीं थकती. लेकिन इस मामले में, उसने अपनी पिछली सार्वजनिक स्थिति से पीछे हटते हुए कुछ भी करने से इन्कार कर दिया. यह ‘नई भाजपा’ है, जो अन्य पार्टियों से एक ‘अलग तरह की पार्टी’ है! याद रहे, लालकृष्ण आडवाणी ने सिर्फ एक आरोप पर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था.
आज राजनैतिक जगत में और न्यायालय में अभूतपूर्व खिंचाई के बावजूद शाह मंत्री बने हुए हैं और पुलिस से बचने के लिए यहां-वहां भाग रहे हैं. अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने 19 मई को दूसरी सुनवाई में आदेश दिया है कि मूलत: अन्य राज्यों के मध्य प्रदेश के आईपीएस अधिकारियों की एक समिति गठित की जाए, जो मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश पर दर्ज की गई दोषपूर्ण एफआईआर की जांच करेगी, तो इसे मोहन यादव सरकार के मुंह पर एक और जोरदार तमाचा माना जा रहा है. लेकिन इसकी परवाह किसे है? सत्ता में आने पर दूसरों को नैतिकता के पाठ पढ़ाना तो चलता रहता है, चलता रहेगा.