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इंदिरा गांधी: शौर्य और साहस की मिसाल

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 19, 2022 3:13 PM

ऑपरेशन ब्लू स्टार का आदेश देते समय इंदिरा गांधी ने सुरक्षाबलों को स्पष्ट निर्देश दिए थे कि कोई भी स्वर्ण मंदिर परिसर में नहीं घुसेगा। लेकिन ऑपरेशन की कमान संभाले जनरल सुंदरजी को लगा कि अंदर जाए बिना आतंकवादियों से मुकाबला संभव नहीं है। यह अपने आप में बड़ी भूल थी।

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मैं बचपन से इंदिरा जी के परिवार को जानता था। उनकी दो बुआ थीं-विजयलक्ष्मी पंडित और कृष्णा हठी सिंह। कृष्णा जी के बेटे मेरे साथ स्कूल में पढ़ते थे। इस नाते मेरा अक्सर उनके घर आना-जाना होता था। मैंने उनके व्यक्तित्व को एक सामान्य व्यक्ति की तरह, एक राजनीतिज्ञ की तरह और एक प्रधानमंत्री की तरह बहुत करीब से देखा। उन्होंने अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ प्रधानमंत्री आवास में 17 साल बिताए लेकिन सरकारी कामकाज में उनका कोई दखल नहीं था।

इसीलिए जब 1966 में लालबहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस संसदीय दल के चुनाव में मोरारजी देसाई को हराकर वह प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। लगभग डेढ़ वर्ष तक वे बहुत चुपचाप रहती थीं। संसद में भी बहुत कम बोलती थीं। इसीलिए विपक्ष ने उनको गूंगी गुड़िया कहकर बुलाना शुरू कर दिया था।

लेकिन 1969 में जब के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, एस.के. पाटिल, हितेंद्र देसाई, त्रिभुवन नारायण सिंह, वीरेंद्र पाटिल जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के सिंडीकेट ने उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की तो उन्होंने न सिर्फ इन नेताओं को किनारे कर अपनी खुद की पार्टी बना ली बल्कि अपनी सरकार भी बरकरार रखने में सफल रहीं। उनके राजनीतिक जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले पाकिस्तान का विभाजन कर बांग्लादेश बना देना, राजघरानों को मिलने वाला प्रिवी पर्स खत्म कर देना, सरकारी बैंकों का सरकारीकरण कर देना और हरित क्रांति की शुरुआत करना थे।

शुरुआत में उनके प्रधान सचिव थे एल.के. झा जो खुद एक आर्थिक विशेषज्ञ थे। उन्हीं की सलाह पर ही प्रधानमंत्री बनने के चंद महीनों के अंदर ही इंदिरा जी ने बैंकों का सरकारीकरण कर दिया। हालांकि बाद में उन्होंने इस फैसले को जल्दबाजी में लेने पर पछतावा भी जाहिर किया। लेकिन यह फैसला देश के हित में साबित हुआ। झा महज एक वर्ष तक ही रह पाए। उनके बाद प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव बने पी.एन. हक्सर जो बहुत ही तेज दिमाग वाले व्यक्ति थे। उस समय प्रधानमंत्री के दफ्तर को प्रधानमंत्री सचिवालय कहा जाता था। उसमें केवल सात व्यक्ति थे। हक्सर के अलावा एस. बनर्जी, जी. पार्थसारथी, मोनी मल्होत्रा, एच. वाई. शारदा प्रसाद और मैं थे। हक्सर के प्रधानमंत्री सचिवालय में आने के बाद वे सरकार में सबसे ताकतवर नौकरशाह बन गए थे। कैबिनेट सचिव से भी ज्यादा।

बांग्लादेश बनाने में लड़ाई भले ही भारतीय सेना ने की हो लेकिन युद्ध छेड़ने का फैसला तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ही था। वैसे ही जैसे ओसामा बिन लादेन को मारने का श्रेय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को दिया गया भले ही इस आतंकवादी सरगना को अमेरिकी नौसेना के दस्ते ने खत्म किया हो। वे अमेरिकी दबाव में भी नहीं झुकीं। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अमेरिकी नौसेना का सातवां बेड़ा भारत की ओर रवाना कर दिया था लेकिन वह इंदिरा गांधी के इरादों को डिगा पाने में सफल नहीं हो पाए। उनके विदेश सचिव हेनरी किसिंगर ने अपनी किताब में लिखा है कि किस तरह इंदिरा जी से नाराज हो निक्सन पीठ पीछे उन्हें काफी बुरा-भला कहते थे लेकिन सामने वह भी खामोश रहे। इसी के बाद गूंगी गुड़िया मानी जाने वाली इंदिरा गांधी मां दुर्गा कहलाई जाने लगीं।

प्रिवी पर्स खत्म करने के फैसले में मेरी भी भूमिका रही। इस दौरान मैंने उनकी कार्यशैली को करीब से देखा और समझा। आजादी के बाद अपनी रियासतों और राज्यों को भारतीय गणतंत्र में समाहित कर देने वाले इन राजघरानों को सरकार से एक निश्चित धनराशि मिलती थी। इसका सरकारी खजाने पर बोझ पड़ रहा था। इसीलिए इंदिरा जी इस परंपरा को खत्म करना चाहती थीं। लेकिन इसके लिए उन्होंने मुझे चुना जो खुद भरतपुर के राज परिवार से संबंध रखता था और जिसकी ससुराल पटियाला के राजघराने में थी। साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय में राजघरानों से संबंध रखने वाले एल।पी। सिंह को भी इसका जिम्मा दिया गया। उनका प्रस्ताव था कि सभी रियासतों को उनकी हैसियत के मुताबिक अगले 10 साल की राशि एकमुश्त देकर हर साल का भुगतान बंद कर दिया जाए। लेकिन गुजरात के धांगध्रा के राजा, बड़ौदा के महाराज और भोपाल की बेगम ने मिलकर अदालत में सरकार के खिलाफ केस डाल दिया। 

अधिकतर राजघरानों को उम्मीद थी कि अदालत के जरिये वे प्रिवी पर्स कायम कराने में सफल होंगे। लेकिन वे यह केस हार गए और किसी भी रियासत को एक पैसा तक न मिला। संसद में लाया गया बिल लोकसभा में तो पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में एक मत से गिर गया। उन्होंने उसी दिन एक अध्यादेश जारी कर तुरंत प्रभाव से प्रिवी पर्स खत्म कर दिया। उनके कार्यकाल के सबसे खराब फैसलों में आपातकाल लगाना और ऑपरेशन ब्लू स्टार की इजाजत देना था। आपातकाल के समय मैं ब्रिटेन में भारतीय दूतावास में था। इस फैसले का बचाव करना हमारे लिए बहुत कठिन था। पूरी दुनिया इसकी आलोचना कर रही थी। कोई हमारा पक्ष छापने को तैयार ही नहीं था। उत्तर भारत में इसका बहुत विरोध हुआ। यह फैसला उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे जैसे उनके समर्थकों के दबाव में लिया।

पूरी दुनिया में बिगड़ती छवि को देखते हुए उन्होंने 1977 में आपातकाल खत्म कर चुनाव कराए। उत्तर भारत में उन्हें केवल 2 सीटें मिली-जम्मू से डॉ. कर्ण सिंह और राजस्थान से नाथूराम मिर्धा जीते। बिहार के बेलछी में हुए हत्याकांड के पीड़ितों से मिलने के लिए वे बरसते पानी और उफनती बाढ़ में हाथी पर बैठकर गईं। वहीं से उनके पक्ष में हवा बदल गई। 1980 में जब वे वापस सत्ता में लौटीं, तब संजय गांधी बहुत बदल चुके थे। यदि हवाई दुर्घटना में वे न मारे जाते तो निश्चित ही भारत के प्रधानमंत्री बनते।

जयप्रकाश नारायण को छोड़कर संपूर्ण क्रांति आंदोलन में कोई भी गंभीर व्यक्ति नहीं था। यही वजह है कि जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद जे.पी. ने इंदिरा गांधी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सोशलिस्ट पत्रिका में लिखे एक लेख में कहा था एक दिन जे.पी. मेरी जगह लेंगे। लेकिन लोहिया के नेतृत्व में समाजवादियों ने कांग्रेस का साथ देने के बजाय उसका विरोध किया। वरना जे.पी. प्रधानमंत्री अवश्य बनते।

इसी तरह ऑपरेशन ब्लू स्टार का आदेश देते समय उन्होंने सुरक्षाबलों को स्पष्ट निर्देश दिए थे कि कोई भी स्वर्ण मंदिर परिसर में नहीं घुसेगा। लेकिन ऑपरेशन की कमान संभाले जनरल सुंदरजी को लगा कि अंदर जाए बिना आतंकवादियों से मुकाबला संभव नहीं है। यह अपने आप में बड़ी भूल थी। आतंकवादियों का भोजन-पानी बंद करके भी महीने-दो महीने में उन्हें आत्मसमर्पण करने पर मजबूर किया जा सकता था। लेकिन स्वर्ण मंदिर में घुसे टैंकों की तस्वीरों ने इंदिरा जी की छवि पूरी तरह ध्वस्त कर दी। उन्हें तभी लग गया था कि अब उनके जीवन के गिने-चुने दिन ही बाकी रह गए हैं। फिर भी अपने अंगरक्षकों में से उन्होंने सिखों को हटाने से इंकार कर दिया। एक को हटाया भी गया तो उन्होंने खुद हस्तक्षेप कर उसे वापस ड्यूटी पर रखवाया।

के. नटवर सिंह पूर्व केंद्रीय मंत्री

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