निशांत सक्सेना
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पहले कार्यकाल में जलवायु नीति पर उनका जो रुख था, उससे यह साफ है कि उनके आने से अमेरिका में जलवायु परिवर्तन की दिशा में और मुश्किलें आ सकती हैं. उन्होंने पेरिस समझौते से बाहर निकलने का फैसला लिया था, प्रदूषण नियंत्रण के नियमों में ढील दी थी और जीवाश्म ईंधन उद्योग को बढ़ावा दिया था. तो अब सवाल यह है कि क्या उनका दूसरा कार्यकाल जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में और रुकावटें पैदा करेगा?
ट्रम्प के पहले कार्यकाल में जो कदम उठाए गए, उनसे यह बिल्कुल स्पष्ट था कि उनका ध्यान पर्यावरण को बचाने से ज्यादा आर्थिक विकास पर था. पेरिस समझौते से बाहर निकलने, गाड़ी के प्रदूषण मानकों को कमजोर करने और कड़े प्रदूषण नियमों को हटाने के फैसले से यह साबित होता है कि उनका प्रशासन जलवायु परिवर्तन से जूझने के बजाय इसे नकारने की कोशिश कर रहा था.
लेकिन, सिर्फ वॉशिंगटन में क्या हो रहा है, यही सब कुछ नहीं है. सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में उम्मीद बाकी है, क्योंकि बहुत सारी बातें फेडरल गवर्नमेंट के बाहर भी हो रही हैं. और यही वह सवाल है जो हमें अब पूछना चाहिए- जब तक ट्रम्प की सरकार जलवायु पर कोई बड़ा कदम नहीं उठाती, क्या राज्यों, समुदायों और कंपनियों के स्तर पर कुछ किया जा सकता है?
यह सच है कि ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन के खिलाफ खड़ा था, लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि बदलाव सिर्फ वॉशिंगटन तक सीमित नहीं है. कैलिफोर्निया, न्यूयॉर्क और वाशिंगटन जैसे राज्य लगातार अपने जलवायु लक्ष्यों की ओर बढ़ रहे हैं. इन राज्यों ने खुद को उन नीतियों से बाहर रखा है जो ट्रम्प ने लागू की थीं, और इस दिशा में काम करने के लिए नए नियम बनाए हैं. ये उदाहरण दिखाते हैं कि केंद्र सरकार का रुख कितना भी असहायक क्यों न हो, हर स्तर पर जलवायु परिवर्तन के लिए कुछ न कुछ कदम उठाए जा सकते हैं.
इसके अलावा, निजी क्षेत्र भी जलवायु के लिए बड़ा योगदान दे रहा है. कई कंपनियां अब पर्यावरण को प्राथमिकता दे रही हैं, क्योंकि बाजार में हर कोई अब ‘ग्रीन’ या पर्यावरण के प्रति जागरूक उत्पादों की मांग कर रहा है. यह सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह एक समझदार व्यापार निर्णय भी है.