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ब्लॉग: चुनावी दंगल में किसका होगा मंगल ?

By राजकुमार सिंह | Updated: June 1, 2024 12:42 IST

इंडिया गठबंधन के बैनर तले एकजुट कांग्रेस समेत 26 विपक्षी दलों ने चुनाव प्रचार की शुरुआत नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे दिन आने, हर साल दो करोड़ नौकरियां देने और विदेशों में जमा कालाधन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख देने जैसे अधूरे वायदों तथा महंगाई और बेरोजगारी जैसे जनता से सीधे जुड़े मुद्दों से की थी।

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ठळक मुद्दे18वीं लोकसभा के चुनाव में सत्तापक्ष और विपक्ष ने जिस तरह बहुमत मिल जाने के दावे किएसात चरणों में मतदान के बीच ही चुनावों में जिस तरह मुद्दे बदले गएयह दिग्भ्रम दोनों पक्षों में दिखा है

18वीं लोकसभा के चुनाव में मतदान के बीच ही सत्तापक्ष और विपक्ष ने जिस तरह बहुमत मिल जाने के दावे किए, वह आत्मविश्वास से ज्यादा अनिश्चितता का संकेतक लगता है। सात चरणों में मतदान के बीच ही चुनावों में जिस तरह मुद्दे बदले गए, उनसे भी राजनीतिक दलों की रणनीति के बजाय दिग्भ्रम का ही संकेत गया। यह दिग्भ्रम दोनों पक्षों में दिखा। दस साल के शासन को विकास का ट्रेलर मात्र बतानेवाली भाजपा ने भी चुनाव में तमाम मुद्दे आजमाए। शायद इसलिए कि आश्वस्त नहीं थी कि कौन-सा मुद्दा मतदाताओं के मन पर प्रभाव छोड़ पाएगा। इंडिया गठबंधन के बैनर तले एकजुट कांग्रेस समेत 26 विपक्षी दलों ने चुनाव प्रचार की शुरुआत नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे दिन आने, हर साल दो करोड़ नौकरियां देने और विदेशों में जमा कालाधन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख देने जैसे अधूरे वायदों तथा महंगाई और बेरोजगारी जैसे जनता से सीधे जुड़े मुद्दों से की थी, लेकिन वह भी बीच मतदान अरबपति मित्र, आरक्षण और संविधान जैसे मुद्दों को आजमाता नजर आया। सत्तापक्ष की तरह विपक्ष भी असमंजस का शिकार था कि पता नहीं कौन से मुद्दे मतदाता का मन मोह पाएंगे। मतदाता द्वारा अपने मन की थाह न देना उसकी और लोकतंत्र की परिपक्वता की निशानी है, लेकिन उसकी मुश्किलें और जरूरतें भी न समझ पाना राजनीति के जनता से कट जाने का प्रमाण है। जन संपर्क से रोड शो में सिमट गई राजनीति की यही सीमाएं हैं कि वह मतदाता का मन पढ़ने के बजाय मोहने का प्रयास करती है। 

कार्यकर्ताओं और प्रतिबद्ध समर्थकों से इतर आम मतदाता इन चुनावों में जोर-शोर से उठाए गए मुद्दों पर भी प्रतिक्रिया देता नहीं दिखा। इसी से राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ी, जिसे वह चुनाव के बीच ही बहुमत मिल जाने का दावा कर छिपाने की कोशिश करते दिखे। साफ कहें तो मतदान के बीच भी मुद्दों के बदलाव के बावजूद इन लोकसभा चुनावों में किसी दल या पक्ष की लहर नहीं दिखी। शायद 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर इन चुनावों में यही बड़ा बदलाव है। 

ये चुनाव मतदाता के अपने मुद्दों तथा स्थानीय समीकरणों पर ज्यादा केंद्रित दिखे। जाहिर है, हवा बनाकर राजनीति करनेवाले दलों-नेताओं को यह अच्छा नहीं लगा होगा, पर पांच साल में चुनाव ही तो वह अवसर है, जब मतदाता वह करते हैं, जो उन्हें अच्छा और सही लगता है। अगर मतदाताओं के मुद्दों और स्थानीय समीकरण पर इन चुनावों का आकलन करें तो कह पाना बहुत मुश्किल है कि इस चुनावी दंगल में मंगलवार को किसका मंगल होने जा रहा है।

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा सबसे बड़ा और मजबूत राजनीतिक दल है तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे लोकप्रिय राजनेता। फिर भी भाजपा के लिए 370 और उसकी अगुवाईवाले राजग के लिए 400 सीटों का लक्ष्य बहुत दूर की कौड़ी लगती है। इसके बावजूद यह तय है कि भाजपा ही अठारहवीं लोकसभा में सबसे बड़ा दल होगी।

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