उत्तरप्रदेश के हाथरस में मंगलवार को एक सत्संग के दौरान मची भगदड़ से एक बार फिर साबित हो गया कि भीड़ प्रबंधन के मामले में प्रशासनिक तंत्र और ऐसे कार्यक्रमों के आयोजक बेहद उदासीन रहते हैं तथा लोगों की जान की उन्हें जरा भी परवाह नहीं होती।
हर साल देश में ऐसे हादसे होते रहते हैं। उसके बाद संबंधित राज्य सरकार जांच और मुआवजे की घोषणा कर देती है. दिखावे के लिए कुछ छुटभैये लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी जाती है और फिर सबकुछ पहले की तरह हो जाता है।
ऐसे कार्यक्रमों के आयोजक हों या उनकी अनुमति देने वाली सरकार की मशीनरी, किसी को यह देखने की चिंता नहीं रहती कि हजारों-लाखों की भीड़ को अनुशासित तथा नियंत्रित रखने, लोगों के बैठने और कार्यक्रम के बाद आसानी से निकलने, पीने के पानी, चिकित्सा तथा छांव और पर्याप्त हवा की व्यवस्था की जगह है या नहीं, इस बात की पड़ताल करने की भी चिंता किसी को नहीं रहती कि अगर कोई दुर्घटना हो जाए तो कार्यक्रम स्थल पर आपदा प्रबंधन के समुचित इंतजाम हैं या नहीं।
मंगलवार को हाथरस में स्वयंभूबाबा नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा की ओर से सत्संग का आयोजन किया गया था। आपकी-हमारी तरह एक सामान्य व्यक्ति भोले बाबा ने ऐसा आभा मंडल बनाया कि लोग उसे ईश्वर का अवतार समझने लगे और उसे सुनने एवं उसकी चरण रज को पाने के लिए हजारों-लाखों की संख्या में उमड़ने लगे।
आस्था और अंधभक्ति की दीवार यहीं स्पष्ट नजर आने लगती है। इस बाबा की चरण रज पाने के लिए भगदड़ मची और 100 से ज्यादा श्रद्धालुओं ने अपने प्राण गंवा दिए। मृतकों की संख्या में अभी और इजाफा होगा।मंगलवार की देर रात तक सरकारी तौर पर मृतकों की संख्या 116 बताई गई। अपुष्ट सूत्रों के मुताबिक मृतक संख्या 120 से 150 के बीच या उससे भी ज्यादा हो सकती है।
कार्यक्रम के आयोजकों ने 80 हजार लोगों के लिए अनुमति हासिल की थी लेकिन करीब ढाई लाख लोग जमा हो गए थे। उमस के बीच इतने लोगों का जमा होना ही भयानक हादसे को न्यौता देने के समान था। और हुआ भी वही. कार्यक्रम स्थल पर किसी अनहोनी की स्थिति में मदद के लिए न तो पर्याप्त संख्या में आयोजकों के सेवादार तैनात थे, न कोई एंबुलेंस थी और न ही चिकित्सकों की टीम तैनात थी। हाथरस की घटना कोई अपवाद नहीं है। महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में 2005 में हुई भगदड़ में 340 श्रद्धालुओं को जान से हाथ धोना पड़ा था। 2008 में राजस्थान के चामुंडा देवी मंदिर में भी भगदड़ में 250 से ज्यादा लोगों ने प्राण गंवाए।
उसी साल हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ मची और 60 से ज्यादा भक्त मारे गए। पिछले साल 31 मार्च को इंदौर में रामनवमी के अवसर पर एक प्राचीन बावड़ी पर बनाए गए स्लैब के ढहने से करीब तीन दर्जन लोग काल के गाल में समा गए थे। उससे तीन महीने पूर्व एक जनवरी 2022 को जम्मू-कश्मीर के विश्व विख्यात वैष्णोदेवी मंदिर में भी श्रद्धालुओं की भारी भीड़ को संभालने में प्रशासन विफल रहा। उसके कारण भगदड़ मची तथा 12 लोगों की मृत्यु हो गई।
आप भारत में किसी भी साल की प्रमुख घटनाओं पर नजर दौड़ा लजिए, आपको उनमें आस्था के स्थलों या आस्था के आयोजनों में भगदड़ की खबर जरूर मिल जाएगी। कुंभ मेले में आमतौर पर भीड़ प्रबंधन उत्कृष्ट रहता है।
लेकिन 27 अगस्त 2003 को नासिक के कुंभ मेले में पवित्र स्नान के दौरान भगदड़ मच गई और लगभग चालीस श्रद्धालु मारे गए थे। भारत में श्रद्धा के नाम पर अंधश्रद्धा ज्यादा है। लोग स्वयंभू बाबाओं पर अंधभक्ति करने लगते हैं। इसीलिए कहीं चमत्कारी पानी को तो कहीं चमत्कारी विभूति या नींबू, नारियल या अन्य किसी धार्मिक सामग्री को पाने के लिए लाखों की भीड़ जमा हो जाती है।
हाथरस में सत्संग करवाने वाले भोले बाबा भी चमत्कारी पुरुष के रूप में प्रचारित किए गए और वास्तविकता की जांच किए बिना लोग अंधभक्ति करने लगे। विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले, शिक्षा का कितना भी प्रचार-प्रसार हो जाए लेकिन जब तक अंधश्रद्धा खत्म नहीं होगी तब तक हाथरस जैसे हादसे होते रहेंगे और प्रशासन कुछ देर के लिए सक्रियता दिखाकर फिर कुंभकर्णी निद्रा में चला जाएगा।