डॉ. राजेश कुमार व्यास
श्रीमद्भगवद्गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को के ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड’ रजिस्टर में सम्मिलित किया गया है. भगवद्गीता बगैर अपेक्षा के कर्म करने की शिक्षा ही नहीं देती बल्कि जीवन की सफलता का मूल मंत्र उसमें है. पर नाट्यशास्त्र का यूनेस्को के स्मृति रजिस्टर में अंकन इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसके जरिए भारतीय कलाओं की अंतर्दृष्टि को वैश्विक स्वीकार्यता मिली है.
भारतीय कलाओं पर पश्चिम की छाया इतनी घनी रही है कि हम अपने मूल में प्रायः झांक ही नहीं पाते हैं. असल में ब्रिटिश इतिहासकारों और कला समीक्षकों ने बहुत से स्तरों पर भारतीय कलाओं को धर्म अनुप्राणित बताते हुए उसे रूढ़ियों और अंधविश्वासों में ही निरंतर गूंथा. विलियम आर्चर जैसे नाट्य आलोचक ने कभी भारतीय कलाओं की खिल्ली उड़ाते हुए उसे बर्बरता के घृणा स्तूप तक की संज्ञा दी.
हालांकि इसके जवाब में महर्षि अरविंद ने ‘फाउंडेशंस ऑफ इंडियन कल्चर’ जैसी महती कृति विश्व को सौंपी, पर मुझे लगता है यूनेस्को की पहल से नाट्यशास्त्र के आलोक में भारतीय कलाओं की सूक्ष्म सूझ पर विश्वभर का ध्यान जाएगा.
भारतीय सौंदर्यशास्त्र का आधार काव्य है. नाटक को काव्य का श्रेष्ठतम रूप कहा गया है. इसीलिए सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन हमारे यहां नाट्यकला के संदर्भ में ही अधिक हुआ है. भरतमुनि का नाट्यशास्त्र नाट्य प्रस्तुतिकरण ही नहीं, रस की भारतीय दृष्टि का भी विरल उपलब्ध ग्रंथ है. इसे पंचम वेद कहा गया है. नाम पर जाएंगे तो यह नाट्य विधा से जुड़ा लगेगा पर गायन, वादन, नर्तन, अभिनय के साथ कोई कला इससे अछूती नहीं है.
भारतीय कला दृष्टि के सार इस ग्रंथ की अभिनव गुप्त ने 12 वीं शताब्दी में टीका लिखी थी. यह विडम्बना ही है कि कलाओं के मर्म में ले जाता नाट्यशास्त्र विमर्श में बहुत अधिक रहा नहीं. पाठ्यपुस्तकों से इतर शायद इसे देखा भी नहीं गया.
छह हजार श्लोकों वाले नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय में ही आता है कि देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने चारों वेदों और उपवेदों का ध्यान कर उनसे सामग्री ली और पंचमवेद के रूप में नाट्यवेद की सृष्टि की. आगे के अध्यायों में कलाओं का सूक्ष्म मर्म उद्घाटित होता, हममें गहरे बसता चला जाता है. भरत ने इसमें एक स्थान पर स्पष्ट किया है कि नाटक वस्तुतः नाटक नहीं प्रयोग है.
नाट्यशास्त्र में यजुर्वेद से अभिनय, अथर्ववेद से रस, ऋग्वेद से पाठ और सामवेद से गीत लिया गया. ब्रह्मा ने इसका निर्माण कर भरतमुनि को दिया. इसका रूपक भी बहुत सुंदर है.
नाट्य का मंचन शुरू हुआ. असुरों को इसमें देवताओं से लड़ना था. असुरों ने अपना काम किया, देवताओं ने अपना. असुर हार गए, देवता जीत गए. असुरों ने ब्रह्मा से कहा- क्यों आप हमारी दुर्गति करा रहे हैं? तब कहा गया नाटक में हार-जीत नहीं होती. नाटक बस नाटक होता है. नाट्यशास्त्र पढ़ते यह भी लगता है, नाट्य अपने आप में एक कला नहीं है-नाट्य बनता ही भिन्न कलाओं के मेल से है.
भरतमुनि ने नाट्य को लोक का अनुकरण कहा है. अंत में इसमें यह भी आता है कि जो कुछ नाट्य का शास्त्र है, इसमें दिया है, पर इसके बाद भी कुछ बचता है तो उसे लोक से लिया जाए. माने लोक की महत्ता लिए है नाट्यशास्त्र.
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को जितनी बार, जितने भी भावानुवादों में पढ़ेंगे, और अधिक पढ़ने, गुनने का मन करेगा. नाट्यशास्त्र इस प्रश्न का भी समाधान लगता है कि अपने से बाहर कलाओं के अर्थ को कैसे प्रकाशित करें. कैसे अमूर्त को मूर्त और मूर्त को अमूर्त में एकरस करते कलाओं का आस्वाद किया जाए. कोई एक कला नहीं बल्कि सभी कलाओं की गहराई में ले जाता यह भारतीय संस्कृति का भी एक तरह से विरल पाठ है.