हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह आशा प्रकट कि थी कि ‘‘धर्म को राजनीति से दूर रखा जाएगा” पर ऐसा होता नहीं। चुनाव-दर-चुनाव हमने धर्म को राजनीति का हथियार बनाए जाते देखा है। कभी किसी पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया जाता है और कभी किसी को बहुसंख्यकों को गोलबंद करने का आरोप झेलना पड़ता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों ही आरोप बेबुनियाद नहीं हैं।
जब हमने अपना संविधान बनाया था तो उसमें इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट किया गया था कि धर्म हमारी राजनीति का हिस्सा नहीं बनेगा, शासन किसी भी धर्म को प्रश्रय नहीं देगा। हमारे संविधान ने हर नागरिक को अपने विश्वास और आस्था के अनुसार अपने धर्म का पालन करने की आजादी और अधिकार दिया है। यही नहीं, हमारा संविधान यह भी कहता है कि किसी को भी अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की आजादी है। संविधान यह भी कहता है कि अपने धर्म की बात करते हुए किसी को दूसरे धर्म का अपमान करने का अधिकार नहीं है। संविधान की इन बातों को हमारे राजनीतिक दल और राजनेता अक्सर दोहराते अवश्य हैं, पर राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए धर्म का दुरुपयोग करने से भी नहीं कतराते।
दुर्भाग्य और चिंता की बात यह है कि हमारे भारत में धार्मिक सहिष्णुता के सारे दावों के बावजूद ‘राजनीति का धर्मकरण’ हो रहा है। अर्से से हम देख रहे हैं कि वैयक्तिक विश्वास, ईश्वर और राजनीति के बीच की रेखाएं मिटती जा रही हैं. कभी बहुसंख्यकों के हाथों में ‘धर्म खतरे में है’ का नारा थमा दिया जाता है और कभी अल्पसंख्यकों को यह आगाह किया जाता है कि उनके हकों को छीना जा रहा है।
अनेक धर्मों का देश होना हमारी एक सच्चाई है, और हर धर्म का सम्मान होना हमारे अस्तित्व की आवश्यकता। हिंदू और मुसलमान, या जैन या सिख या बौद्ध, सब इस देश के नागरिक हैं, हमारा संविधान सबको सम्मान से जीने का अधिकार देता है। हम भले ही किसी भी धर्म को मानने वाले क्यों न हों, हम सब भारतीय हैं. इस देश पर हम सबका अधिकार है। और हम सबका कर्तव्य है कि देश की एकता को बनाए रखने के प्रति पूरी ईमानदारी के साथ जागरूक रहें।
दुर्भाग्य की बात यह है कि आज देश में ऐसे तत्व और ऐसी सोच लगातार सक्रिय और ताकतवर हो रहे हैं जो हमारी भारतीयता को सीमित बनाते हैं। आसेतु-हिमालय यह भारत हम सबका है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने देश में रहने वाले हर भारतीय को हिंदू बताया था। उनकी इस बात को थोड़े व्यापक संदर्भ में देखने-समझने की आवश्यकता है। हम चाहे स्वयं को हिंदू कहें या भारतीय, हमें समझना यह है कि बांटने वाली ताकत कभी भी किसी धर्म की परिभाषा नहीं हो सकती।
धर्म हमें जोड़ने वाली शक्ति है। आज आवश्यकता धर्म को बांटने वाली ताकत के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिशों को विफल बनाने की है। सांस्कृतिक हिंदू को राजनीतिक हिंदू समझना-समझाना कुल मिलाकर भारतीयता को ही कमजोर बनाएगा। हमारी आवश्यकता इस भारतीयता को मजबूत बनाने, बनाए रखने की है।