आजकल डॉक्टरी, वकालत और शिक्षा- ये तीन सेवाएं नहीं, व्यवसाय माने जाते हैं. यदि कोई व्यवसाय करता है तो पैसा तो वह बनाएगा ही.
इन तीनों सेवाओं को सीखने के दौरान जो भारी-भरकम खर्च करना पड़ता है, अगर उसे वसूला नहीं जाए तो काम कैसे चलेगा? वसूली के इस दौर में शहरी, संपन्न और ऊंची जातियों के लोग तो किसी तरह अपना काम निकाल ले जाते हैं लेकिन देश के लगभग 100 करोड़ लोग आज भी समुचित शिक्षा, चिकित्सा और न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं.
रविवार को कुछ जगहों पर देश के पांच प्रांतों के ऐसे पांच डॉक्टरों के बारे में विस्तृत खबर छपी है, जो अपने मरीजों से फीस के नाम पर कुछ नहीं लेते या इतनी फीस लेते हैं जो एक प्याला चाय की कीमत से भी कम होती है. ऐसे डॉक्टर, वैद्य, हकीम और होमियोपैथ सारे भारत में पहले सैकड़ों की संख्या में पाए जाते थे. यही हाल गुरुकुलों का भी था.
हमारी संस्कृत पाठशाला के किसी भी ब्रह्चारी को हमने फीस देते हुए नहीं देखा. डॉक्टरों और अध्यापकों को अपने अस्पतालों और स्कूलों से जो वेतन मिलता था, उसमें वे अपना गुजारा करते थे लेकिन अपने ऐशो-आराम या अहंकार-तृप्ति के लिए उन्होंने अपने सेवा-कार्य को कभी व्यवसाय में तब्दील नहीं होने दिया. हां, पारमार्थिक शिक्षा व चिकित्सा संस्थाओं के दरवाजे पर दान-पात्न रखे होते थे.
जिसका जितना मन हो, उतने पैसे वह उसमें डाल देता था. यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार द्वारा कोरोना का टीका करोड़ों लोगों को मुफ्त में लगवाया जा रहा है लेकिन यही पद्धति देश की संपूर्ण चिकित्सा-व्यवस्था पर लागू क्यों नहीं की जाती? निजी अस्पतालों की लूट पर रोक क्यों नहीं लगाई जाती?
यदि देश की शिक्षा-व्यवस्था उच्चतम स्तर तक मुफ्त हो और स्वभाषा में हो तो भारत को यूरोप से भी आगे निकलने में बहुत कम समय लगेगा. तन के लिए चिकित्सा और मन के लिए शिक्षा सुलभ हो तो भारत को सबल और संपन्न बनने से कौन रोक सकता है? उन पांच देवतुल्य डॉक्टरों से देश के लाखों डॉक्टर कुछ न कुछ प्रेरणा जरूर ले सकते हैं.