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धार के बांध से बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे और दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे तक...परियोजनाओं में लापरवाही के कई उदाहरण

By पंकज चतुर्वेदी | Published: August 24, 2022 11:19 AM

देश में विकास का पैमाना ही जब सड़क, पक्के निर्माण, ब्रिज आदि हो गए हैं और इन पर बेशुमार धन व्यय भी हो रहा है, तो फिर इनके निर्माण गुणवत्ता पर लापरवाही क्यों हो रही है?

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धार जिले की धरमपुरी तहसील के ग्राम कोठीदा भारुडपुरा में करीब 304 करोड़ रुपए की लागत से बन रहे निर्माणाधीन बांध में पहली ही बारिश में रक्षाबंधन के दिन रिसाव शुरू हो गया. कारम मध्यम सिंचाई परियोजना के बांध के दाएं हिस्से में 500-530 के मध्य डाउन स्ट्रीम की मिट्टी फिसलने से बांध को खतरा पैदा हुआ था. इस बांध की लंबाई 590 मीटर और ऊंचाई 52 मीटर है. जब देश आजादी का 75वां साल मना रहा था, तब धार जिले के 12 और खरगोन जिले के छह गांव के लोग आशंका-भय के साए में रात खुले में काट रहे थे. 

प्रशासन ने तो गांव खाली करवाने की घोषणा कर दी, लोग जैसे ही घर छोड़ कर गए, उनके मवेशी चोरी हो गए, घरों के ताले टूट गए. फौज बुला, दो मंत्री और अफसरों का अमला वहां तीन दिन बना रहा. जैसे-तैसे पोकलैंड मशीनों से मिट्टी काट कर पानी निकलने का मार्ग बनाया. बांध फूटने से आने वाली बड़ी तबाही नहीं आई लेकिन पानी की निकासी ने हजारों हेक्टेयर खेत चौपट कर दिए, बांध में लगे तीन सौ चार करोड़ तो मिट्टी में मिल ही गए.

बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन हुआ और अगले ही दिन पहली बरसात में सड़क कई कई जगह बुरी तरह टूट गई. कई लोग घायल हुए, मामला सियासती आरोप-प्रत्यारोप में फंस गया, महज ध्वस्त हिस्से पर मरम्मत का काम हुआ और बात आई गई हो गई. जान लें कि इस 296 किमी की सड़क का खर्च आया था 14800 करोड़ रु. अर्थात हर किमी का 50 करोड़. यदि एक गांव में एक किमी का खर्चा लगा दें तो वह किसी यूरोप के शहर सा लक-दक हो जाए.

दिल्ली से मेरठ के एक्सप्रेसवे को ही लें, इसे देश का सबसे चौड़ा और अत्याधुनिक मार्ग कहा गया. सन् 1999 में कभी इसकी घोषणा संसद में हुई और फिर शिलान्यास 2015 में हुआ. यदि दिल्ली निजामुद्दीन से यूपी गेट और उधर मेरठ के हिस्से को जोड़ लें तो यह सड़क कुल 82 किलोमीटर की हुई. छह से 14 लेन की इस सड़क की लागत आई 8346 करोड़. हिसाब लगाएं, प्रति किलोमीटर 101 करोड़ से भी ज्यादा. आज भी थोड़ी बरसात हो जाए तो पूरी सड़क स्वीमिंग पूल बन जाती है, जगह-जगह सड़क धंस जाना आम बात है. 20 अगस्त को ही थोड़ी सी बरसात हुई और परतापुर के पास मिट्टी कटाव हुआ और सड़क धंसने लगी. असलियत यह है कि इस पर न ड्रेनेज माकूल है और न ही वायदे के मुताबिक वर्षा जल के संरक्षण की तकनीक काम कर रही है.  

जब देश में विकास का पैमाना ही सड़क, पक्के निर्माण, ब्रिज आदि हो गए हैं और इन पर बेशुमार धन व्यय भी हो रहा है, तो फिर इनके निर्माण गुणवत्ता पर लापरवाही क्यों हो रही है?

मप्र के धार में जो बांध पूरा होने से पहले ही फूट गया, उसका निर्माण एक ऐसी कंपनी कर रही थी जिसे राज्य शासन ने पांच साल पहले प्रतिबंधित या ब्लैक लिस्ट किया था. होता यह है कि ठेका तो किसी अन्य फर्म के नाम होता है. इस तरह की कंपनियां ठेकेदार से ‘पेटी-ठेका’ ले लेती हैं और काम करती हैं. यह भी संभव है कि ठेका जिस कंपनी को मिला है, वह प्रतिबंधित कंपनी की ही शेल कंपनी हो. परंतु सारा जिम्मा ठेकेदार पर तो डाला नहीं जा सकता, हर छोटी-बड़ी परियोजना का अवलोकन, निरीक्षण, गुणवत्ता और मानक को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी तो सरकारी इंजीनियर की ही होती है. उसी के सत्यापन से सरकारी खाते से बजट आवंटित होता है.

यह सच है कि कोविड के चलते कई निर्माण परियोजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे हैं और एक तो उनकी पूंजी फंसी है, दूसरा समय बढ़ने से लागत बढ़ गई है, तीसरा हर परियोजना पर जल्द पूरा करने का सरकारी दबाव है. कई जगह तो काम की स्थिति देखे बगैर आला नेताओं से लोकार्पण की तारीख तय कर दी गई और फिर आनन-फानन में आधे-अधूरे काम का लोकार्पण करवा लिया गया. 

यह मेरठ एक्सप्रेसवे में भी हुआ और अखिलेश यादव के समय आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे पर भी और उस समय भी सड़क ढह गई थी. दिल्ली में प्रगति मैदान परियोजना अभी भी आधी-अधूरी है–मथुरा रोड पर बाकायदा उतने ही ट्रैफिक सिग्नल हैं. एक बात और, एक ही कंपनी को कई-कई काम मिलने से भी इस तरह की परेशानियां खड़ी हो रही हैं.

असल सवाल यही है कि जनता के कर से वसूले गए पैसे से जब शहरी मूलभूत सुविधा जोड़ने की ऐसी परियोजनाएं बन रही हैं जिसके दस फीसदी से गांव को स्कूल, डाॅक्टर, सड़क, बिजली सभी से जोड़ा जा सकता हो, और उसमें भी न गुणवत्ता है और न ही निकट भविष्य का आकलन, तो ऐसे कार्यों पर कड़ी कार्रवाई होती क्यों नहीं दिखती?

आजादी के 100 साल के सफर के शेष 25 साल इसीलिए चुनौतीपूर्ण हैं क्योंकि अब विकास में बड़ी पूंजी का निवेश हो रहा है और ऐसी परियोजना के असफल होने का अर्थ होगा निर्धारित लक्ष्य की तरफ दौड़ते देश के पैरों में बेड़ी. यह समय परियोजना में कोताही के प्रति ‘जीरो टाॅलरेंस’ का होना चाहिए.

टॅग्स :Madhya Pradeshअखिलेश यादवAkhilesh Yadav
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