देश की भारतीय संघीय व्यवस्था में राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है. केंद्र सरकार का राज्यपालों के माध्यम से राज्यों की सत्ता में हस्तक्षेप हमेशा ही होता आया है. अतीत में केंद्र और राज्यों के खराब संबंधों के परिणाम चुनी हुई सरकारों को भुगतने पड़े हैं.
वर्ष 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से राज्यों में राज्यपाल और प्रदेश सरकारों के बीच खटपट देखी गई है. हालांकि यह उन्हीं स्थानों पर अधिक दिखाई देता है, जहां गैरभाजपा दल के पास राज्य की सत्ता है. वर्तमान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पद पर रहते हुए राज्य सरकार से अनेक बार उनकी भिड़ंत हुई.
इसी प्रकार दिल्ली जैसे छोटे राज्य में उपराज्यपाल और केजरीवाल सरकार में कभी नहीं बनी. महाराष्ट्र में भगत सिंह कोश्यारी के राज्यपाल रहते ठाकरे सरकार का अनेक विषयों पर विवाद होता रहा. तमिलनाडु का ताजा मामला आश्चर्यजनक और चिंताजनक इसलिए हो जाता है, क्योंकि यह उच्चतम न्यायालय की चौखट तक पहुंच गया और उसे न केवल हस्तक्षेप करना पड़ा, बल्कि अपनी व्यवस्था भी देनी पड़ी. अदालत ने पहली बार राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति को लंबित विधेयक पर फैसला लेने के लिए समय सीमा तीन माह तय की है.
यह परिस्थिति तब उत्पन्न हुई जब तमिलनाडु के राज्यपाल लंबित विधेयकों पर मुहर नहीं लगा रहे थे. इस मामले में शीर्ष न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 200 का जिक्र करते हुए कहा कि राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयक को अनिश्चितकाल के लिए रोक नहीं सकते हैं. अदालत ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 200 में विधेयक को मंजूरी देने की कोई समय सीमा तय नहीं है.
इसका मतलब यह भी नहीं कि राज्यपाल विधेयक को लंबे समय तक रोके रखें और राज्य की कानून बनाने वाली व्यवस्था में अवरोधक बन जाएं. इससे पहले भी अदालत ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्यपाल रवि की तरफ से राष्ट्रपति के विचार के लिए रोके गए और आरक्षित किए गए 10 विधेयकों को मंजूरी देने तथा राज्य विधानसभाओं की ओर से पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए सभी राज्यपालों के लिए समय सीमा निर्धारित की थी.
अदालत ने यह भी साफ किया कि राज्यपाल की तरह, राष्ट्रपति के पास भी पूर्ण ‘वीटो’ का अधिकार नहीं है. संविधान में स्पष्ट है कि असीमित शक्तियां किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं हो सकतीं. इसलिए देरी होने पर उचित कारण के साथ संबंधित राज्य को सूचित किया जाना चाहिए. इसके बदले में राज्यों को केंद्र के साथ सहयोग करना चाहिए. हालांकि यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि कई बार राजनीतिक प्रतिबद्धता के चलते राज्यपाल दबाव में रहते हों.
लेकिन संघीय ढांचे को बनाए रखने और संविधान संरक्षक के रूप में राज्यपालों के विवेक को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है. वहीं अनावश्यक हस्तक्षेप पूर्वाग्रह को जन्म देता है. अब सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट व्यवस्था दी है, जिससे निर्धारित दायरे में राज्य सरकार और राज्यपाल बंधकर कार्य कर सकते हैं. बशर्ते दोनों राजनीति के चश्मे को लगाकर न देखें.