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Charan Singh: ग्रामीण भारत के प्रवक्ता थे चौधरी चरण सिंह?, 1930 में नमक कानून तोड़ने के कारण छह माह की जेल काटी...

By अरविंद कुमार | Updated: December 23, 2024 05:26 IST

Charan Singh: 23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में किसान परिवार में जन्मे चरण सिंह के परिवार की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि रही है.

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ठळक मुद्दे2023 में उनको भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया. 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरू कर दी. 1929 में गाजियाबाद में कांग्रेस संगठन खड़ा किया.

Charan Singh: पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का आज जन्म दिवस है, जो हर साल किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है. किसान दिवस मनाने का सिलसिला 23 दिसंबर 1978 को चौधरी साहब के जन्मदिवस पर बोट क्लब पर हुए किसानों के विशाल जमावड़े से आरंभ हुआ था. दिल्ली में उनके सम्मान में गांधीजी की समाधि राजघाट के ठीक बगल किसान घाट कायम है. 2023 में उनको भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया. 23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में किसान परिवार में जन्मे चरण सिंह के परिवार की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि रही है.

उन्होंने काफी मुश्किलों में शिक्षा हासिल करते हुए 1927 में मेरठ काॅलेज से कानून की डिग्री लेकर 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरू कर दी. इसी दौरान वे आजादी के आंदोलन में कूद पड़े और जल्दी ही चलती-फिरती वकालत छोड़ दी. 1929 में गाजियाबाद में कांग्रेस संगठन खड़ा किया और 1930 में नमक कानून तोड़ने के कारण छह माह की जेल काटी.

तीस के दशक में मेरठ जिला परिषद के सदस्य बनने के बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण 1937 में वे विधानसभा के सदस्य बन गए. तभी से किसानों का कल्याण उनके मुख्य एजेंडे में रहा. चौधरी चरण सिंह के पूरे राजनीतिक जीवन में गांव और किसान का सबसे ऊंचा स्थान रहा. वे सगर्व कहते थे कि मेरे संस्कार उस गरीब किसान के संस्कार हैं, जो धूल, कीचड़ और छप्परनुमा झोपड़ी में रहता है.

चौधरी साहब की राजनीति का सबसे अहम दौर कांग्रेस में बीता. लेकिन कांग्रेस के अलावा अपना दल बनाया तो भी किसान उसके केंद्र में रहा. 1939 में ऋणमुक्ति विधेयक पास कराकर उन्होंने लाखों गरीब किसानों को कर्जे से मुक्ति दिलाई. कृषि उत्पादन मंडी विधेयक भी उन्होंने निजी सदस्य की हैसियत से उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश किया.

राजनीति के आरंभ से ही चौधरी साहब को सरदार वल्लभभाई पटेल और गोविंद वल्लभ पंत ने काफी स्नेह दिया. इसी कारण वे देश में सबसे बेहतरीन जमींदारी उन्मूलन कानून बनाने में सफल रहे. बाद में चकबंदी कानून और 1954 में भूमि संरक्षण कानून भी उन्होंने बनाया जिस कारण उत्तर प्रदेश में वैज्ञानिक खेती और भूमि संरक्षण को मदद मिली.

चौधरी साहब जातिवाद के कट्टर विरोधी थे. उन्होंने 1948 में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिख कर मांग की कि शैक्षिक संस्थाओं के नामों से जातिसूचक शब्द हटाए जाएं. जो संस्था ऐसा न करे, उनका अनुदान बंद कर दिया जाए. जब वे 1967 में मुख्यमंत्री बने तो ऐसी संस्थाओं को अपने नामों के आगे से जातिसूचक शब्द हटाने पड़े, जो सरकारी अनुदान ले रहे थे.

इस चपेट में सबसे अधिक राजपूतों और जाटों की संस्थाएं आईं. चौधरी चरण सिंह के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कोई अंतर नहीं था. राजनीति में उनमें साहस इस हद तक भरा था कि उन्होंने 1959 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में नेहरूजी के ड्रीम प्रस्ताव सहकारी खेती के प्रस्ताव का खुला विरोध किया और इसे भारतीय संदर्भ में अव्यावहारिक करार दिया.

नेहरूजी लोकतांत्रिक विरोध को निजी विरोध के रूप में नहीं लेते थे. उत्तर प्रदेश में चौधरी साहब चार दशक तक विधायक रहे और इसी दौरान वे राष्ट्रीय नेता बन चुके थे. पर केंद्रीय राजनीति में वे पहली बार 1977 में आए और उनका ही आधार जनता पार्टी के गठन में काम आया. जनता पार्टी में समाहित जनसंघ सहित उन सभी दलों के नेताओं ने चौधरी साहब की पार्टी से लिए गए चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा था.

विजयी होने पर मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री और चौधरी  चरण सिंह गृह मंत्री बने, पर सरकार बनते ही इनमें खटास पैदा हो गई. हालांकि चौधरी साहब के कारण जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में कृषि को सबसे अधिक प्राथमिकता मिली थी. 1979 में नाबार्ड की स्थापना के साथ चरण सिंह ने किसानों के हित में कई कदम उठाए. कृषि जिंसों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक हटा दी.

चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने तो ग्रामीण पुनरुत्थान मंत्रालय की स्थापना भी की. किसान जागरण के लिए ही उन्होंने 13 अक्तूबर 1979 से असली भारत साप्ताहिक अखबार शुरू किया था. कई बार उनसे मिलने गांवों के लोग आते तो वे उनसे कहते थे कि किराए पर इतना पैसा खर्च करने की जगह यही बात एक पोस्टकार्ड पर लिख देते तो तुम्हारा काम हो जाता.

उनकी राजनीति लंबी चली, पर वे जिस भूमिका में रहे, किसानों के लिए काम करते रहे. उत्तर भारत में किसान जागरण के साथ उनको अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया. उनकी राजनीति उद्योगपतियों से नहीं बल्कि किसानों के चंदे से चलती थी. उन्होंने अपने सांसदों-विधायकों के लिए नियम बना रखा था कि अगर ये साबित हो गया कि किसी ने पूंजीपतियों से चंदा लिया है तो उसे दल छोड़ना पड़ेगा. चौधरी चरण सिंह गांव और गरीब के आजीवन उसके प्रवक्ता बने रहे. उनके उत्थान के लिए जीवन भर लड़ते रहे.

सीमित दौर में वे नीति निर्माता की भूमिका में रहे. पहली बार वे मुख्यमंत्री बने तो 11 महीने और दूसरी बार आठ महीने रहे. प्रधानमंत्री केवल 170 दिन रहे और संसद का सामना तक नहीं किया. लेकिन वे 1951 से 1967 के बीच 19 महीनों की अवधि छोड़ कर वे लगातार उत्तर प्रदेश सरकार में कई विभागों के मंत्री रहे.

85 साल की आयु में चौधरी साहब का 29 मई 1987 को निधन हुआ जीवन के आखिरी क्षण तक वे किसानों की दशा पर चिंतित रहे. उनको इस बात की पीड़ा थी कि वे सत्ता में रह कर भी किसानों के लिए वह सब नहीं कर सके, जो करना चाहते थे. फिर भी सीमित समयों में यथासंभव ग्रामीण भारत के हित में कुछ ठोस काम किया. इसी नाते वे कभी भी राजनीतिक धारा से अप्रासंगिक नहीं हो सके.

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