Canada-India: कनाडा ने भारत से टकराव की जो राह चुनी है, वह संबंधों को टूट के कगार पर ले जा रही है. इस सियासी हवन में रिश्तों की बलि चढ़ चुकी है. कनाडा जिस बिंदु पर आकर खड़ा हो गया है, वहां से उसके लौटने की कोई संभावना नहीं है. जस्टिन ट्रूडो की अगले साल अक्तूबर में होने वाले निर्वाचन में करारी शिकस्त ही अब रिश्तों की डोर को टूटने से बचा सकती है. ट्रूडो ने सिखों की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को प्रसन्न रखने के लिए ही इस रास्ते का चुनाव किया है. पर, वे इसके दूरगामी गंभीर परिणामों को नहीं समझ रहे हैं. उनकी भूल उनके ही मुल्क के लिए अनेक दुश्वारियां खड़ी कर सकती है.
यहां तक कि वे भारत के साथ अतीत के अध्यायों को भी भूल जाना चाहते हैं. चंद रोज पहले एक भरोसेमंद सर्वेक्षण में वे सिर्फ 23 फीसदी मतदाताओं के समर्थन पर खड़े दिखाई दे रहे हैं और यह आंकड़ा उन्हें अगली पारी खेलने की इजाजत नहीं देता. उनकी अपनी लिबरल पार्टी में ही जबरदस्त विरोध के कारण ट्रूडो ने अपनी मुश्किलें और बढ़ा ली हैं.
पार्टी के दो दर्जन सांसदों ने बीते दिनों ट्रूडो से इस्तीफा मांगा था, जिसे प्रधानमंत्री ने ठुकरा दिया था. इसके बाद जस्टिन ट्रूडो अपने ही घर में पराए हो गए हैं. वे कनाडा की मुख्य समस्याओं से निपटने में नाकाम रहे हैं. अपने कार्यकाल में उपलब्धियों के नाम पर देशवासियों को बताने के लिए उनके पास कुछ नहीं है. लंबे समय से अपने पिछलग्गू देश की मदद खुद अमेरिका भी इन दिनों नहीं कर सकता.
कारण यह कि अमेरिका स्वयं अपने भीतर आग की लपटों से घिरा हुआ है. वहां न तो डोनाल्ड ट्रम्प के साथ उनके संबंध अच्छे हैं और न ही कमला हैरिस उन्हें पसंद करती हैं. इस हाल में उनके लिए पाने को कुछ नहीं है. जो भी है, खोना ही खोना है. आगे बढ़ने से पहले इतिहास के एक पुराने अध्याय के पन्ने पलटना बेहतर होगा.
इससे दोनों देशों की सियासत के मौजूदा बिगड़े मिजाज को समझने में सहायता मिलेगी. यह बात लगभग 110 साल पुरानी है. भारत तब गुलाम था और कनाडा अंग्रेजों का पिट्ठू था. तब हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों और गदर पार्टी के नेताओं ने भारत की सभी फौजी छावनियों में सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई थी.
तमाम देशों में बिखरे करीब 8000 क्रांतिकारी जहाजों से भरकर चुपचाप हिंदुस्तान पहुंचे थे. ऐसा ही एक जहाज कामागाटामारू गदर पार्टी के बाबा गुरदित्त सिंह ने ठेके पर लिया था. इस पर स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा बड़ी संख्या में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग थे. इनकी कुल संख्या 376 थी. इन देशभक्तों को लेकर जहाज समंदर के रास्ते कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तट पर पहुंचा.
इनमें 340 सिख, 24 मुसलमान, 12 हिंदू और कुछ गोरे थे. 23 मई, 1914 को वैंकुवर बंदरगाह पर जहाज पहुंचा तो उसे दो महीने तक वहीं खड़ा रखा गया. कनाडा सरकार ने भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं दी. बीमारी, भूख और अन्य परेशानियों के चलते अनेक भारतीयों ने दम तोड़ दिया. पर कनाडा नहीं पसीजा.
इसके सौ साल बाद जस्टिन ट्रूडो जब सिखों और भारतीयों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने बाकायदा कनाडा की संसद में 20 मई 1916 को भारत से इस 101 साल पुरानी घटना के लिए कनाडा की ओर से माफी मांगी. विश्व इतिहास में ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. उस समय जस्टिन ट्रूडो की इस भूमिका को लगभग सभी हिंदुस्तानियों ने सराहा था.
इसके बाद उन्होंने अगले चुनाव में भारतीयों की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन से सरकार बनाई. उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरा था और उनके दल को बहुमत नहीं मिला था. इस आलेख में कामागाटामारू प्रसंग का उल्लेख इसीलिए जरूरी था क्योंकि 2024 में जस्टिन ट्रूडो का एक नया रूप भारतीय देख रहे हैं.
जब वे 2016 में भारत से अपने देश की तरफ से माफी मांगते हैं तो भारत को उनकी मंशा में सदाशयता दिखाई देती है. लेकिन जब वे 2024 में हिंदुस्तान को धमकाने की मुद्रा में हैं तो वे भारत के अलगाववादियों के दबाव में नजर आते हैं. न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी पर इन दिनों सिख अलगाववादियों का प्रभुत्व है. यह पार्टी उन्हें समर्थन देने के बदले भारत विरोध को हवा दे रही है.
अब दो ही बातें हो सकती हैं-एक तो यह कि ट्रूडो भारत के सिख अलगाववादियों को सहयोग देने की अपने देश की पुरानी विदेश नीति की राह पर चल पड़े हैं. उनके पिता पियरे ट्रूडो भी सिख अलगाववादियों को समर्थन देते थे. इस काम में अमेरिका की भूमिका भी परदे के पीछे से नजर आती है. कनाडा अमेरिका से किसी भी कीमत पर रिश्ते नहीं बिगाड़ सकता.
इसका एक अर्थ यह भी है कि पश्चिम के राष्ट्र एशिया में ब्रिक्स को मजबूत होते नहीं देखना चाहते. भारत, चीन और रूस का कोई गठबंधन उन्हें रास नहीं आ रहा है. दूसरा अर्थ यह निकलता है कि जस्टिन किसी भी सूरत में चुनाव जीतना चाहते हैं. यदि भारतीय मूल के सिख मतदाताओं के समर्थन से वे एक बार फिर प्रधानमंत्री बनते हैं (जिसकी संभावना क्षीण है) तो भारत से संबंध सुधारने के लिए पूरा कार्यकाल रहेगा.
परंतु वे नहीं समझ रहे हैं कि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. कनाडा की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में भारत से शैक्षणिक संसार का सहयोग बहुत मायने रखता है. यदि यह सहयोग चटक गया तो कनाडा के लिए संभलना बेहद कठिन हो जाएगा. इसके अलावा पंजाब से जमीनें बेचकर कनाडा बस रहे सिखों का योगदान भी कम नहीं है.
सारे सिख अलगाववादी नहीं हैं. अगर ट्रूडो अलगाववादियों का खिलौना बन गए तो कनाडा में नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी. उनसे निपटना ट्रूडो के लिए आसान नहीं होगा. कुल मिलकर ट्रूडो एक ऐसे रास्ते पर जा रहे हैं, जिस पर उनके लिए खतरे ही खतरे हैं.