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BRICS summit: एशिया की ओर बढ़ती वैश्विक धुरी के संकेत

By राजेश बादल | Updated: October 23, 2024 18:55 IST

BRICS summit: रूस, चीन और भारत ने करीब चौंतीस साल पहले एक नया संगठन बनाया.

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ठळक मुद्देरूसी रवैये में छिपी हुई एक खास नरमी की ओर इशारा करता है.एशिया की बारी है. वैसे ब्रिक्स की जन्म गाथा बेहद दिलचस्प है. क्षेत्रफल तथा संसाधनों की दृष्टि से भारत, चीन और रूस से कहीं पीछे था.

BRICS summit: ब्रिक्स शिखर बैठक से ठीक पहले रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का बयान गंभीर इशारा करता है और वैश्विक समीकरणों की पड़ताल भी चाहता है. सर्गेई ने पश्चिमी देशों का नाम लिए बिना साफ-साफ कहा है कि भारत, चीन और रूस की दोस्ती मजबूत हो रही है और यह बहुत आगे जाएगी. सर्गेई के इस कथन का सीधा-सीधा अर्थ यही है कि अब आने वाला समय अमेरिकी चौधराहट के लिए शुभ संकेत नहीं है. पश्चिमी राष्ट्रों और यूरोपीय मुल्कों के लिए इसमें अनेक संदेश छिपे हैं. आने वाले दिनों में यह बयान रूसी रवैये में छिपी हुई एक खास नरमी की ओर इशारा करता है.

सर्गेई लावरोव कहते हैं कि ब्रिक्स का उद्देश्य किसी से संघर्ष करना नहीं है. यदि इस अंतरराष्ट्रीय संगठन में पश्चिम के राष्ट्र शामिल नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उनके विरोधी हैं या फिर उनसे टकराव लेना चाहते हैं. हकीकत तो यह है कि इसमें शामिल देश अपनी भौगोलिक निकटता और साझा विरासतों का बेहतर भविष्य के लिए लाभ उठाना चाहते हैं.

यदि सर्गेई के कूटनीतिक संदेश को हम पढ़ना चाहें तो सरल भाषा में कह सकते हैं कि पश्चिमी देशों की दादागीरी के दिन लद गए. अब एशिया की बारी है. वैसे ब्रिक्स की जन्म गाथा बेहद दिलचस्प है. रूस, चीन और भारत ने करीब चौंतीस साल पहले एक नया संगठन बनाया. उस दौर की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर अमेरिका संसार का चौधरी बन बैठा था और आबादी, क्षेत्रफल तथा संसाधनों की दृष्टि से भारत, चीन और रूस से कहीं पीछे था. यह स्थिति एशिया के इन उप सरपंचों को रास नहीं आ रही थी. इसलिए इन त्रिदेवों को एक मंच पर आना ही था.

उस दौर में भारत तथा चीन के संबंधों में आज की तरह तनाव का जहर नहीं घुला था. इसके बाद इस तिकड़ी के साथ ब्राजील भी आ गया. इससे इन चार देशों ने नई शताब्दी में प्रवेश करते-करते संसार को चौंका दिया. निवेशक बैंक गोल्डमैन सैक्स ने 2001 में इन चार देशों को सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बताया था.

अगले आठ साल में इन चार राष्ट्रों ने 2009 में ब्रिक्स नामक इस विराट संस्था को आकार दिया, जब 2010 में दक्षिण अफ्रीका को प्रतिनिधित्व मिला और इस तरह अफ्रीकी देश भी इस संगठन के बैनर तले आ गए. मौजूदा साल में चार नए देश इसका अंग बने. मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात ने इस संस्था को इतना विराट आकार दिया कि यह यूरोपीय यूनियन को पछाड़कर संसार का तीसरा सबसे बड़ा आर्थिक  संगठन बन गया. इन चार राष्ट्रों के ब्रिक्स का सदस्य बनने के बाद यह पहला शिखर सम्मेलन रूस में हो रहा है.

ब्रिक्स के आंतरिक ताजा समीकरण भारत की स्थिति को तनिक भारी बनाते हैं. रूस के साथ भारत के गहरे पारंपरिक रिश्ते हैं. ब्राजील और अफ्रीका के साथ भारत के ऐतिहासिक और कूटनीतिक संबंध चीन की तुलना में बेहतर हैं. भारत अकेला देश है, जिसके ईरान से सदियों पुराने गहरे आध्यात्मिक और आर्थिक रिश्ते रहे हैं. ब्रिक्स की पिछली बैठक की अध्यक्षता कर रहे चीनी राष्ट्रपति ने ईरान पर डोरे डालने का प्रयास किया तो ईरानी राष्ट्रपति ने इशारों में स्पष्ट कर दिया था कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय टकरावों से विश्व शांति के लिए कई समस्याएं खड़ी हो रही हैं.

चीन की दाल तो नहीं गली, पर यह साफ हो गया कि ब्रिक्स के अलावा वह अरब देशों में भी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. पेंच यह है कि सऊदी अरब खुलकर अमेरिका के पक्ष में है. इसलिए उसके पड़ोसी ईरान पर डोरे डालना चीन के अपने हित में है. तुर्की और मलेशिया से उसने पहले ही पींगें बढ़ा रखी हैं. सिर्फ भारत ही ऐसा देश है, जिसके साथ चीन अपने को असहज पाता है.

भारत एक तरफ ब्रिक्स में प्रभावी भूमिका में है तो दूसरी ओर क्वाड में वह अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ है. चीन की उलझन का यह बड़ा कारण है. ब्रिक्स की पिछली बैठक से पहले ग्रुप-7 के शिखर सम्मेलन में चीन ने भारत पर सांकेतिक हमला बोला था. लेकिन उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया. पाकिस्तान को चीन छोड़ नहीं सकता और पाकिस्तान ने भारत से दोस्ती नहीं रखने की स्थायी कसम खा रखी है. ऐसे में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का बयान संकेत देता है कि चीन और भारत आने वाले दिनों में दोस्ती का एक कदम और बढ़ाते दिखाई दें.

यदि ऐसा होता है तो यह पश्चिमी और यूरोपीय देशों को रास नहीं आएगा, क्योंकि इससे उनका आधार कमजोर होगा और वैश्विक धुरी एशिया के पाले की ओर खिसकती दिखाई दे सकती है. इसलिए भारत के लिए सर्गेई के बयान में दो संदेश छिपे हैं. एक तो यह कि चीन समझ गया है कि भारत को साधे बिना वह अमेरिका की चौधराहट को चुनौती नहीं दे सकता.

ने वाले दिनों में वह रूस की मध्यस्थता में भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में गंभीर हो जाए. दूसरा यह कि चीन के सामने साफ हो गया है कि पाकिस्तान के लिए अमेरिका को छोड़ना संभव नहीं है. पाकिस्तान चीन और अमेरिका दोनों नावों की सवारी करे - यह चीन कभी नहीं चाहेगा. हो सकता है कि उसकी आंखें खुलें और वह अब शायद भारत से संबंधों की कीमत पर पाकिस्तान को पालना-पोसना छोड़ दे. भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री की सोमवार को पत्रकारों से बातचीत इस ओर इशारा करती है.

विक्रम मिस्त्री ने ऐलान किया है कि भारत और चीन नियंत्रण रेखा पर गश्त को लेकर एक समझौते पर पहुंच चुके हैं. इस तरह नियंत्रण रेखा पर तनाव घटाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा माना जा सकता है. उन्होंने कहा है कि ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच द्विपक्षीय बैठक हो सकती है. भारत इस बैठक के होने पर एक सकारात्मक परिणाम की आशा कर सकता है.

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