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ब्लॉगः मंत्रियों के लिए हो ‘केआरए’ का प्रावधान, जवाबदेही और प्रदर्शन की रेटिंग अब समय की मांग

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 21, 2023 3:18 PM

एक अध्ययन में बताया गया है कि अधिकांश राज्यों में, सब कुछ मुख्यमंत्री और उनके कार्यालय द्वारा तय किया जाता है और अधिकांश मंत्री, शिक्षित हों या अशिक्षित, सिर्फ मोहरा बनकर रह गए हैं। यह किसी भी मानक से आदर्श स्थिति नहीं है।

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अभिलाष खांडेकरः अजित पवार ने चौथी बार प्रगतिशील राज्य महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बनकर एक तरह का इतिहास रच दिया है। मैं यहां राकांपा से अलग हुए समूह के भाजपा में शामिल होने की नैतिकता, इसके ज्ञात और अज्ञात कारणों आदि में नहीं जाना चाहता। मैं सत्ता में महत्वाकांक्षी पवार की वापसी के घटनाक्रम के चलते एक सवाल उठाने का प्रयास कर रहा हूं कि एक मतदाता किसी मंत्री के प्रदर्शन को कैसे रेटिंग दे सकता है या आंक सकेगा? भारतीय लोकतंत्र में मंत्रियों का जितना महत्व है, उतना कहीं और नहीं है।

क्या इसके लिए कोई तंत्र है? या, क्या यह केवल मंत्रियों का मूल्यांकन करने की मुख्यमंत्री की इच्छाशक्ति पर निर्भर है? यह अकेले पवार के बारे में नहीं है। भारत में कई पार्टियों के सैकड़ों ज्ञात और अज्ञात मंत्री कैबिनेट में जगह, महत्वपूर्ण विभाग पाते रहते हैं, अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं और पैसा कमाते हैं।

महाराष्ट्र में पवार का क्या ठोस योगदान था जिसे उनके राज्य या अन्य जगहों के लोग जानते हैं? उपमुख्यमंत्री के रूप में उनके पास कई विभाग रहे थे। अपने लंबे कार्यकाल में उन्होंने महाराष्ट्र को क्या दिया, यह कम ही पता है। बेशक, उनके चाचा शरद पवार कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए जाने जाते हैं।

हाल ही में रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव देश की सबसे खराब ओडिशा रेल दुर्घटना को लेकर विवाद में फंस गए थे और लोगों ने उनके इस्तीफे की जबरदस्त मांग की थी क्योंकि यह उनके मंत्रीपद के प्रदर्शन से सीधे संबंधित था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। दो साल के कार्यकाल में उनके प्रयासों के बारे में लोग इतना ही जानते हैं कि दुर्घटनाओं से सुरक्षा के लिए ‘कवच’ की शुरुआत की गई थी... इससे आगे कुछ नहीं।सभी लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं और ‘सम्माननीय’ व्यक्तियों को एक निश्चित अवधि के लिए लोगों (मतदाताओं) पर शासन करने की अनुमति देते हैं। इसके बाद जनप्रतिनिधि विभिन्न सदनों में बैठते हैं और दो महत्वपूर्ण कार्य करते हैं: एक कानून बनाना और दूसरा उन्हें आवंटित विभिन्न मंत्रालयों या विभागों को चलाना। 

क्या मंत्री वास्तव में योजनाएं और कल्याण कार्यक्रम बनाने में कुछ ठोस योगदान करते हैं? या फिर पेशेवर नौकरशाह ही हैं जो मंत्रालयों को आकार देते हैं और निर्णय लेते हैं, नीतिगत मामले तय करते हैं जिन्हें बाद में मंत्रियों द्वारा सामूहिक रूप से कैबिनेट बैठकों में अनुमोदित किया जाता है? हाल ही में योगी आदित्यनाथ ने उ.प्र. के एक सड़क प्रोजेक्ट में देरी के लिए वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को हटा दिया था। माना कि नौकरशाही को खामियाजा भुगतना पड़ता है, लेकिन उन मंत्रियों के बारे में क्या जो विभागों के प्रमुख हैं और अधिकांश महत्वपूर्ण फाइलों पर हस्ताक्षर करते हैं? शक्तियों का पृथक्करण लगभग एक स्थापित प्रथा है और नौकरशाहों को पर्याप्त शक्तियां सौंपी जाती हैं, फिर भी मंत्रियों की जवाबदेही और प्रदर्शन की रेटिंग अब समय की मांग है। यह मूल्यांकन जनता को करना चाहिए। हम इसे सीएम या पार्टी के पोलित ब्यूरो या आलाकमान जैसे राजनीतिक आकाओं पर नहीं छोड़ सकते। कुछ सीएम आधिकारिक तौर पर ऐसी कवायद करते हैं लेकिन वह महज दिखावा होता है।

मतदाता हर पांच साल में एक राजनेता के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में और जिस पार्टी का वे प्रतिनिधित्व करते हैं उसके ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर विधायकों का चुनाव करते हैं। लेकिन क्या लोग मंत्रियों का मूल्यांकन उनके प्रदर्शन या उनकी कमी के आधार पर करते हैं? क्या कोई पुख्ता तंत्र उपलब्ध है? क्या हमारे पास किसी मंत्री के निष्पक्ष मूल्यांकन की कोई अराजनीतिक व्यवस्था है? क्या गैर-सरकारी निगरानी संगठनों की यहां कोई भूमिका है?

अनुभवजन्य ज्ञान हमें बताता है कि जब किसी मंत्री को बर्खास्त किया जाता है, तो या तो उसकी सार्वजनिक प्रतिष्ठा खराब होने के कारण ऐसा होता है या वह किसी घोटाले में शामिल होता है या राजनीतिक रूप से अनुपयुक्त होता है। शायद ही कभी मंत्रियों को उस विभागीय प्रदर्शन के आधार पर हटाया गया हो जिसकी जानकारी मतदाताओं को हो। लोगों की धारणा है कि वे जनतंत्र का हिस्सा होने के बावजूद बेहद असहाय हैं। यह चित्र हमें बदलना होगा।

किसी मंत्री की जवाबदेही ऐसे समय में तय की जानी चाहिए जब वे सत्तारूढ़ समूहों में शामिल होने के लिए या किसी अन्य तरीके से अचानक दल बदल लेते हैं। निजी क्षेत्र में, की रिजल्ट एरिया (केआरए) रखने की एक प्रबंधन प्रणाली या मानव संसाधन की एक प्रथा है। इसे मंत्रियों पर लागू क्यों नहीं किया जा सकता? जब निर्वाचित राजनेता मंत्री पद की शपथ लेते हैं तो वे क्या करते हैं, उनसे क्या करने की अपेक्षा की जाती है आदि पर अक्सर मतदाताओं के बीच बहस होती है, लेकिन निराशाजनक रूप से। इस बहस को धारदार बनाना होगा।

एक सरकार में, राज्य वेटलैंड प्राधिकरण का नेतृत्व करने वाले पर्यावरण मंत्री न तो अपने जिले में एक तालाब बचा सके और न ही 17-18 महीनों में प्राधिकरण की अनिवार्य बैठकें आयोजित कर सके; दूसरे राज्य में परिवहन मंत्री को इस बात की कोई समझ नहीं थी कि बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं से कैसे निपटा जाए; एक और बड़े राज्य में, वन मंत्री बड़े पैमाने पर अवैध पेड़ों की कटाई के प्रभाव को नहीं समझ पाए, न रोक पाए।

एक अध्ययन में बताया गया है कि अधिकांश राज्यों में, सब कुछ मुख्यमंत्री और उनके कार्यालय द्वारा तय किया जाता है और अधिकांश मंत्री, शिक्षित हों या अशिक्षित, सिर्फ मोहरा बनकर रह गए हैं। यह किसी भी मानक से आदर्श स्थिति नहीं है। कई साल पहले, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. बीसी रॉय ने एक मशहूर वाक्य कहा था : ‘मैं सुबह 11 बजे राइटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) में प्रवेश करने वाले अपने मंत्रियों को कछुए की तरह उल्टा कर देता हूं और फिर उन्हें घर जाने के लिए शाम 5 बजे के आसपास सीधा कर देता हूं।’ इसका मतलब साफ था कि वह मंत्रियों को पूरी तरह अक्षम बना देते थे। डॉ। रॉय ने ऐसा क्यों कहा होगा और इसका संदर्भ क्या रहा होगा एक अलग कहानी है लेकिन मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि मंत्रियों के लिए ‘केआरए’ बनाए जाएं। संविधान में निहित ‘हम लोगों’ को बहुत कुछ करना होगा। मंत्रियों के कामों का वार्षिक हिसाब लेने से, जनतंत्र उद्देश्यपूर्ण बन सकेगा।

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