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ब्लॉगः मुश्किल मुद्दों से किनारा करती विपक्षी एकता

By राजकुमार सिंह | Updated: September 8, 2023 09:18 IST

मुंबई बैठक में पारित प्रस्ताव में बड़ी सावधानी से कहा गया है कि जहां तक संभव होगा, हम अगला चुनाव मिल कर लड़ेंगे। संकेत है कि टीमएमसी-लेफ्ट के बीच तल्ख टकराववाले पश्चिम बंगाल तथा कांग्रेस- लेफ्ट के बीच ही सत्ता संघर्षवाले केरल में ‘इंडिया’ के घटक दलों में परस्पर चुनावी मुकाबला देखने को मिल सकता है।

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मुंबई में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की दो दिवसीय बैठक के निष्कर्षों पर भाजपा के कटाक्ष और सवाल समझे जा सकते हैं, पर वहां जो कुछ हुआ, अपेक्षित ही था। समान विचारवाले दलों में गठबंधन की राजनीति के दिन कब के हवा हो चुके, अब तो महज सत्ता प्राप्ति के साझा उद्देश्य से ही गठबंधन बनते हैं: चाहे वह एनडीए हो या फिर ‘इंडिया’। हां, मुंबई बैठक में ‘इंडिया’ का लोगो जारी न हो पाना निराशाजनक है, पर बिना संयोजक ही सही, समन्वय समिति की घोषणा एक जरूरी कदम के रूप में सामने आई है। जाहिर है, परस्पर दलगत हितों के टकराव के मद्देनजर ‘इंडिया’ के घटक दल फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं। संयोजक को चुनावी चेहरे के रूप में देखा-दिखाया जा सकता है। इसलिए उसकी घोषणा के साथ ही खींचतान बढ़ भी सकती है। आखिर चार राज्यों में अपनी और तीन राज्यों में गठबंधन सरकारवाली कांग्रेस विपक्ष का सबसे बड़ा दल है, तो मात्र एक लोकसभा सांसदवाली आप की भी दो राज्यों में सरकार है। उधर नीतीश कुमार इस विपक्षी एकता के सूत्रधार रहे हैं, तो 42 लोकसभा सीटोंवाले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बेहद जुझारू नेता हैं।

फिर नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 18 सितंबर से संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र बुलाने तथा ‘एक देश-एक चुनाव’ के मुद्दे पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति की घोषणा से समय पूर्व लोकसभा चुनाव की आशंका भी गहराई है। इसलिए भी, विपक्ष की कोशिश है कि टकराववाले मुद्दों से किनारा करते हुए अपने गठबंधन को चुनाव के लिए तैयार किया जाए। फिर भी यह देखते हुए कि भाजपा की सबसे बड़ी चुनावी ताकत नरेंद्र मोदी का नाम और चेहरा ही है, ‘इंडिया’ को भी सामूहिक नेतृत्व की आड़ से निकल कर कोई चेहरा आगे करना ही पड़ेगा। पर उससे पहले सीटों का बंटवारा बड़ा मुद्दा है, जिस पर सबकुछ निर्भर करेगा- और इसे टाला भी नहीं जा सकता। इसलिए मुंबई बैठक में प्रचार अभियान और सोशल मीडिया संबंधी समितियां गठित करते हुए ‘इंडिया’ ने जल्दी ही सीट शेयरिंग फॉर्मूला खोजने की बात भी कही है, पर यह कर पाना कहने जितना आसान नहीं। कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल चुनावों में परस्पर टकराते ही रहे हैं। अच्छी बात यह है कि विपक्षी दलों के बड़े नेताओं को इस जटिलता का अहसास है, और कहा जा रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए वे त्याग करने को तैयार हैं, लेकिन साझा न्यूनतम कार्यक्रम की दिशा में अभी तक कदम न बढ़ाए जाने पर कई तरह के सवाल उठ सकते हैं। अगर ‘इंडिया’, मोदी सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताता है, तो उसे वैकल्पिक दृष्टिकोण के साथ अपना साझा न्यूनतम कार्यक्रम देश के समक्ष पेश करना ही होगा।

मुंबई बैठक में पारित प्रस्ताव में बड़ी सावधानी से कहा गया है कि जहां तक संभव होगा, हम अगला चुनाव मिल कर लड़ेंगे। संकेत है कि टीमएमसी-लेफ्ट के बीच तल्ख टकराववाले पश्चिम बंगाल तथा कांग्रेस- लेफ्ट के बीच ही सत्ता संघर्षवाले केरल में ‘इंडिया’ के घटक दलों में परस्पर चुनावी मुकाबला देखने को मिल सकता है। केरल में भाजपा का कोई प्रभाव नहीं है, इसलिए कांग्रेस या लेफ्ट में से जो भी जीते, ‘इंडिया’ की ही जीत होगी, लेकिन पश्चिम बंगाल में विपक्षी गठबंधन को इससे नुकसान हो सकता है। कांग्रेस और आप नेतृत्व अभी तक परस्पर समझदारी का संकेत दे रहे हैं, पर दिल्ली और पंजाब में उनके बीच भी सीट बंटवारा आसान नहीं होगा। लोकसभा चुनाव में ज्यादा टकराव न भी हो, पर विधानसभा चुनाव में सीट शेयरिंग बहुत बड़ी चुनौती साबित होगी। कहीं ‘एक देश- एक चुनाव’ की सोच ‘इंडिया’ में ऐसे टकराव को बढ़ावा देने की मंशा से भी तो प्रेरित नहीं? मोदी सरकार का यह अकेला दांव नहीं है, जिससे ‘इंडिया’ में बौखलाहट है।

जी-20 शिखर सम्मेलन के मेहमानों को रात्रिभोज के निमंत्रण पत्र पर ‘प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ की जगह ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ लिखे जाने से भी विपक्ष बौखलाया हुआ है कि कहीं विशेष संसद सत्र में देश का नाम बदलने का इरादा तो नहीं है? ‘इंडिया’ की आंतरिक मुश्किलें भी कम नहीं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का आरोप तो विपक्ष पर हमेशा रहा है, अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने, तमिल राजनीति के समीकरण साधने के लिए ही सही, सनातन धर्म के विरुद्ध जैसा विष वमन किया है, उससे हो रहे राजनीतिक नुकसान की भरपाई आसान नहीं। जब राजनीति चुनाव और सत्ता का खेल बन कर रह गई है तो हार-जीत के लिए दल-नेता कोई भी दांवपेंच आजमाने में संकोच नहीं करते। साफ है कि लोकसभा चुनाव जब भी हों, राजनीतिक मोर्चाबंदी तेज होगी और दलों-नेताओं के बीच जुबानी जंग लगातार तल्ख।

यह भी साफ है कि अगला लोकसभा चुनाव पिछले दो लोकसभा चुनावों से अलग होगा। पहली बार विपक्ष में यह विश्वास दिख रहा है कि एकजुट होकर वह नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा को हरा सकता है, तो अचानक एनडीए की सक्रियता से भाजपा की चुनावी चिंताएं भी पहली बार ही उजागर हो रही हैं। लोकतंत्र संख्या का खेल भी है। इसीलिए 26 दलोंवाले ‘इंडिया’ पर मनोवैज्ञानिक बढ़त के लिए एनडीए ने 38 दलों का कुनबा इकट्ठा किया, पर मुंबई बैठक में ‘इंडिया’ का कुनबा भी 28 तक पहुंच गया है। यह सक्रियता और सेंधमारी चुनाव के बाद भी चल सकती है। यदि लोकसभा चुनाव समय पर ही हुए तो उनसे पहले इसी साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें से तीन: राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा। इन राज्यों के चुनाव परिणाम का असर दोनों गठबंधनों की मोर्चेबंदी पर ही नहीं, बल्कि ‘इंडिया’ के आंतरिक समीकरणों पर भी पड़ेगा।

टॅग्स :जी20उदयनिधि स्टालिन
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