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ब्लॉग: निजी क्षेत्र के पक्ष में जाती अर्थव्यवस्था

By अभय कुमार दुबे | Published: February 06, 2024 9:59 AM

अगर बिना लोकलुभावन योजनाएं घोषित किए हुए चुनाव जीता जा सकता है, तो फिर फालतू में पैसे क्यों बर्बाद किए जाएं। अंतरिम बजट में सरकार ने यही किया है।

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ठळक मुद्देएक फरवरी को पेश किए गए अंतरिम बजट में किसी भी तरह की लोकलुभावन घोषणा नहीं हुईभाजपा सरकार के इस अंतरिम बजट से कारपोरेट जगत बहुत खुश है बाजारवादी अर्थशास्त्री सरकार को बधाई दे रहे हैं कि वो राजकोषीय स्थिति की सुधार की ओर बढ़ रही है

अगर बिना लोकलुभावन योजनाएं घोषित किए हुए चुनाव जीता जा सकता है, तो फिर फालतू में पैसे क्यों बर्बाद किए जाएं। अंतरिम बजट में सरकार ने यही किया है। भाजपा सरकार के इस रवैये ने कारपोरेट जगत को बहुत खुश कर दिया है। आनंद महिंद्रा जैसे बड़े उद्योगपति ने सरकार को बधाई दी है। बाजारवादी अर्थशास्त्री भी सरकार को बधाई दे रहे हैं कि उसने राजकोषीय स्थिति को सुधारने की तरफ सकारात्मक कदम बढ़ा दिया है।

अंतरिम बजट में एक संदेश यह भी छिपा हुआ है कि पॉलिटिकल इकनॉमी (जिसकी नुमाइंदगी बजट करता है) का रिश्ता पॉलिटिकल डेमोक्रेसी (जिसकी नुमाइंदगी मतदाता करते हैं) से या तो टूट गया है या टूटने वाला है। अगर वोटरों का हितसाधन किए बिना भाजपा अगला चुनाव जीतने में सफल हो जाती है तो हो सकता है कि अगले पांच साल अर्थव्यवस्था को कॉर्पोरेट जगत की सेवा में पूरी तरह से झोंक दिया जाए। उस सूरत में जनता के लिए भाजपा के पास बजट के बाहर घोषित की गई लोकलुभावन योजनाएं होंगी, और अर्थव्यवस्था की नीतिगत संरचना बाजार का हितसाधन करते हुए नजर आएगी।

एक फरवरी को पेश किए गए अंतरिम बजट में किसी भी तरह की लोकलुभावन घोषणा नहीं हुई। इससे सरकार के समर्थक और आलोचक दोनों ही ताज्जुब में पड़ गए। पिछली बार 2019 के चुनाव से ठीक पहले पेश किए गए बजट में कुछ लोकलुभावन घोषणाओं के साथ-साथ प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की भी घोषणा हुई थी। राजनीति के समीक्षक यह मानते हैं कि किसान सम्मान निधि ने केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए लाभार्थियों के संसार को विस्तृत करते हुए और प्रभावी बनाया था।

इस बार समझा जा रहा था कि सरकार स्त्री-किसानों की एक श्रेणी बनाएगी, और उसे छह हजार रुपए देने के बजाय दोगुनी यानी बारह हजार रुपए की मदद देने की घोषणा करेगी। इससे उत्तरोत्तर प्रभावी होते जा रहे स्त्री-वोटर को और अधिक अपनी ओर खींचा जा सकता था लेकिन, सरकार ने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा। इसकी जगह उसने पहले से चल रही लखपति दीदी योजना का विस्तार करके संतोष कर लिया। प्रश्न यह है कि भाजपा सरकार ने चुनाव से ठीक पहले पेश किए गए इस बजट के मौके का इस्तेमाल क्यों नहीं किया?

इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं। पहला, भाजपा इस समय आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई है। उसे लग रहा है कि मई के महीने में होने वाले मतदान में उसे पर्याप्त मात्रा में वोट मिलेंगे, और वह तीसरी बार लगातार बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी यानी, भाजपा ने अपना रणनीतिक प्रबंधन काफी-कुछ कर लिया है। बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक उसकी कमजोर कड़ियां थीं।

बिहार में नीतीश कुमार को अपनी ओर खींच कर, महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी की दो पार्टियों (राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना) को विभाजित करके, एवं कर्नाटक में वोक्कलिगाओं की पार्टी जनता दल (सेकुलर) के साथ समझौता करके उसने गारंटी कर ली है कि इन राज्यों में वह 2019 का नतीजा दोहरा सकती है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा ने मायावती को अलग चुनाव लड़ने पर मजबूर करके अपना रणनीतिक प्रबंधन किया है।

भाजपा जानती थी कि अगर कहीं बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल में समझौता हो गया तो राम मंदिर की हवा के बावजूद राज्य में वह पच्चीस-तीस सीटें हार जाएगी। इसी के साथ भाजपा छोटी-छोटी कमजोर बिरादरियों को अपने आगोश में समेटने के लिए जगह-जगह उनके सम्मेलन आयोजित कर रही है अर्थात, उन 11 राज्यों में जहां उसने पिछली बार विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया था, वहां उसे यकीन है कि वह दोबारा वैसा ही कर दिखाएगी।

जहां तक लोकलुभावन योजनाओं की प्रभावकारिता का सवाल है, सरकार ने उनके प्रदर्शन-आधारित नतीजों का तखमीना लगाने की एक कोशिश की थी। इसके तहत नीति आयोग की तरफ से सरकार को 740 विषयों का एक क्रमवार दस्तावेज दिया जाना था। इसे प्रत्येक मंत्रालय के पास भेज कर हर मंत्रालय से रपट ली जानी थी लेकिन संभवत: ऐसा नहीं हो पाया। आज सरकार की घोषणाओं की समीक्षा या तो मीडिया द्वारा की जा रही है या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा. उज्ज्वला योजना की समीक्षा में पता चल चुका है कि इसके तहत जिन गरीबों को गैस कनेक्शन, गैस का चूल्हा और एक सिलेंडर दिया गया था, उनमें से भी ज्यादातर लकड़ी और गोबर के जलावन पर खाना पका रहे हैं।

चूंकि ये योजनाएं इच्छित नतीजे नहीं दे पा रही हैं, इसलिए उनकी जगह सीधे-सीधे गरीबों और वंचितों के खाते में छोटी-छोटी रकमें भेजने का चलन बढ़ता जा रहा है। धीरे-धीरे सरकार अपने खिलाफ पनप सकने वाली एंटी-इनकम्बेंसी को मंद करने के लिए इस जुगाड़ पर निर्भर होती जा रही है। ऐसा लगता है कि आने वाले भविष्य में सरकार के पास लोगों को देने के लिए सिर्फ टुकड़े होंगे, और अर्थव्यवस्था निजी क्षेत्र की जेब में चली जाएगी।

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