कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे, जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा!... शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा। राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत ये पंक्तियां सुनने में ही नहीं, गाने और गुनगुनाने में भी अच्छी लगती हैं लेकिन जैसे-जैसे आजादी की उम्र बढ़ रही है, हमारी सामाजिक कृतघ्नता उसे हासिल करने में शहीदों के योगदान को इस कदर भुला दे रही है कि उससे क्षुब्ध लोग पूछने लगे हैं-शहीदों के मजारों पर लगेंगे किस तरह मेले?
यह प्रश्न इस तथ्य की रौशनी में भी उत्तर की मांग करता है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के इतिहासप्रसिद्ध काकोरी ट्रेन एक्शन को लेकर 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर, फैजाबाद (अब अयोध्या) और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की जेलों में शहीद हुए रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्ला खां और रोशन सिंह के शहादत दिवस पर उनके शहादत स्थलों पर लगते आ रहे ‘मेले’ दम तोड़ते जा रहे हैं और किसी को उनका नोटिस लेने तक की फुर्सत नहीं है।
गोंडा की जेल में इन तीनों से दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही सूली पर लटका दिए गए राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का शहादत स्थल भी इसका अपवाद नहीं है। प्रसंगवश, काकोरी ट्रेन एक्शन से अंदर तक हिल गई गोरी सरकार ने बाद में मुकदमे का नाटक कर इसके चारों नायकों बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी व रोशन को शहीद कर डाला था।
ये चारों शहीद इस अर्थ में बहुत अभागे निकले कि आजादी के दशकों बाद तक किसी को उनकी स्मृतियां संजोने की जरूरत नहीं महसूस हुई। झाड़-झंखाड़, कूड़े करकट और गुमनामी में डूबे अशफाक के फैजाबाद (अब अयोध्या) जेल स्थित शहादत स्थल की बदहाली की ओर सबसे पहले 1967 में कुछ स्वतंत्रता सेनानियों का ध्यान गया।
उन्होंने जेल प्रशासन की बेरुखी के बीच उसकी सफाई की और अशफाक के शहादत दिवस पर वहां मेले की परम्परा डाली। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद स्वतंत्रता सेनानियों व उनके परिजनों के आर्थिक सहयोग से यह मेला लगाती थी। बाद में एक तो स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या घटती गई, दूसरे लोगों में वह जज्बा भी नहीं रह गया और मेले का खर्च दूभर होने लगा तो मन मारकर उसने प्रदेश व केन्द्र सरकारों से मदद की याचना की।
लेकिन किसी भी सरकार ने इस हेतु एक भी रुपया देना गवारा नहीं किया। तब परिषद ने ऐसे नेताओं व मंत्रियों को मेले का मुख्य अतिथि बनाना शुरू कर दिया जिनके आगमन के बहाने प्रशासन मेले का थोड़ा बहुत प्रबंध करा दे। मगर यह सिलसिला भी लम्बा नहीं चल सका और परिषद ने हारकर मेले के आयोजन से खुद को अलग कर लिया।