BJP-RSS: वैचारिकता के मुद्दे पर दिल्ली की दुविधा, क्या भारत के लिए समाजवाद विचार एक विचारधारा के रूप में शाश्वत हैं?
By हरीश गुप्ता | Updated: July 3, 2025 05:53 IST2025-07-03T05:53:05+5:302025-07-03T05:53:05+5:30
BJP-RSS: ‘प्रस्तावना शाश्वत है. क्या भारत के लिए समाजवाद के विचार एक विचारधारा के रूप में शाश्वत हैं?’ उन्होंने राजनीतिक वर्ग - विशेष रूप से भाजपा - को एक गहन वैचारिक गणना की ओर प्रेरित करते हुए पूछा.

सांकेतिक फोटो
BJP-RSS: वैचारिक महत्व से भरपूर लेकिन तत्काल सीमित राजनीतिक व्यवहार्यता वाले एक कदम में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबले ने संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों की समीक्षा करने का आह्वान किया है - ये शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान विवादास्पद 42वें संशोधन के माध्यम से डाले गए थे. आपातकाल लागू होने के 50 साल पूरे होने पर बोलते हुए, होसबले ने कहा कि ये शब्द संविधान में नहीं थे और बाद में जोड़े गए, जिन्होंने डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा परिकल्पित संविधान की भावना को बदल दिया.
‘प्रस्तावना शाश्वत है. क्या भारत के लिए समाजवाद के विचार एक विचारधारा के रूप में शाश्वत हैं?’ उन्होंने राजनीतिक वर्ग - विशेष रूप से भाजपा - को एक गहन वैचारिक गणना की ओर प्रेरित करते हुए पूछा. लेकिन यह कहना जितना आसान है, उतना करना नहीं. सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन का नेतृत्व करने के बावजूद, भाजपा के पास संविधान में संशोधन करने के लिए आवश्यक संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत नहीं है. यहां तक कि अपने सहयोगियों के साथ भी, संख्याबल पूरा नहीं है - न तो लोकसभा में और न ही राज्यसभा में.
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, शिवराज सिंह चौहान और जितेंद्र सिंह सहित कई भाजपा नेताओं ने आरएसएस के विचार का समर्थन किया. फिर भी, नागपुर की सारी स्पष्टता के बावजूद, दिल्ली का अंकगणित बाधा है. बिहार व आंध्र में पार्टी के अधिक उदार गठबंधन सहयोगी- जिनकी जड़ें ‘धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी’ परंपराओं में हैं- पहले ही इस तरह के वैचारिक दुस्साहस से असहज हैं.
चूंकि आरएसएस संवैधानिक स्थायित्व के बारे में बुनियादी सवाल उठाता है, मोदी सरकार एक जटिल दुविधा का सामना कर रही है: गठबंधन की नाव को पलटे बिना वैचारिक दिशासूचक का पालन कितनी दूर तक किया जाए. नागपुर से संकेत स्पष्ट हैं लेकिन नई दिल्ली की नजर फिलहाल वोटों के समीकरण पर है, शब्दों के पुनर्लेखन पर नहीं.
नीतीश : एनडीए का ‘चेहरा’ हैं, भविष्य नहीं?
बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में जद(यू) अपने नेता नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर बढ़ती अनिश्चितता से जूझ रहा है - जबकि भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए इस बात पर जोर दे रहा है कि वह अभी गठबंधन का चेहरा बने रहेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार की तीन यात्राओं के दौरान नीतीश की प्रशंसा की, लेकिन एक बार भी यह नहीं कहा कि चुनाव के बाद वे मुख्यमंत्री होंगे.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक साक्षात्कार में यह कहकर स्थिति को और उलझा दिया: ‘केवल समय ही तय करेगा कि सीएम कौन होगा.... लेकिन हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं.’ अल्पविराम से पहले का यह विराम जद(यू) को चिंतित करता है. भाजपा की अस्पष्टता ने केवल अटकलों को तेज किया है. उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने नीतीश को गठबंधन का नेता कहा,
लेकिन हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने सार्वजनिक रूप से चौधरी को बिहार में एनडीए के उभरते सितारे के रूप में पेश किया. इसने जद(यू) को अपने पटना मुख्यालय में एक बड़े बैनर के साथ जवाबी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया : ‘25 से 30, फिर से नीतीश’ ( 2025 से 2030 तक). जद(यू) के प्रवक्ताओं को नुकसान की भरपाई के लिए मजबूर होना पड़ा है.
राजीव रंजन प्रसाद ने कहा, ‘वह सीएम का चेहरा हैं. वह फिर से सरकार का नेतृत्व करेंगे.’ लेकिन भाजपा की सतर्कता अकारण नहीं है. नीतीश कुमार ने कई बार वैचारिक पुल पार किए हैं- 2013 में भाजपा के साथ संबंध तोड़कर, 2017 में वापस आकर, 2022 में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल होकर और आखिरकार 2024 में एनडीए में शामिल होकर नौवीं बार सीएम बनने के लिए. तो, क्या वह फिर से सीएम होंगे? आधिकारिक तौर पर, हां. राजनीतिक रूप से, कोई भी अनुमान लगा सकता है. एनडीए का रुख ऐसा लगता है: नीतीश के साथ मिलकर जीतो, बाद में फैसला करो.
दलित वोट के लिए भाजपा की बेताबी
2024 के लोकसभा चुनावों में अनपेक्षित प्रदर्शन के बाद, भाजपा दलित मतदाताओं को लुभाने के लिए एक स्पष्ट और कुछ लोगों का कहना है कि व्यग्रता से प्रयास कर रही है. पार्टी की घटी सीटों के लिए आंशिक रूप से विपक्ष के इस नैरेटिव को जिम्मेदार ठहराया गया कि संविधान में बदलाव से दलित अधिकार खतरे में आ जाएंगे.
इसके असर ने भाजपा को अपने सत्ता गलियारों में एक प्रतीकात्मक फेरबदल को मजबूर किया है. बाबासाहब आंबेडकर की तस्वीरें अब भाजपा कार्यालयों की दीवारों पर छाई हुई हैं, जहां प्राय: दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे संघ के प्रतीकों की ही तस्वीरें रहती रही हैं.
यह बदलाव जानबूझकर किया गया है - यह सुनिश्चित करने के लिए कि जब मंत्री और नेता कैमरे में कैद हों तो डॉ. आंबेडकर की छवि हर फोटो फ्रेम में हो. संसद में पिछले दिनों हुए विवाद ने इस मामले की गंभीरता को और बढ़ा दिया, जब गृह मंत्री अमित शाह ने आंबेडकर का बार-बार नाम लिए जाने पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की, जिस पर विपक्ष ने कड़ी प्रतिक्रिया की.
विपक्ष ने इसका फायदा उठाया और ‘बाबासाहब का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान’ जैसे नारे लगाते हुए विरोध प्रदर्शन शुरू किया, विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव पेश किए और ‘संविधान खतरे में है’ अभियान को फिर से शुरू किया. यह पहली बार नहीं है जब भाजपा दलित मुद्दों पर उलझी हुई है.
2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या और उना में कोड़े मारने की घटना से लेकर भीमा कोरेगांव हिंसा और 2018 में एससी/एसटी एक्ट को वापस लेने तक - पार्टी को अक्सर नुकसान की भरपाई के लिए संघर्ष करना पड़ा है. रामनाथ कोविंद जैसे दलित नेताओं को राष्ट्रपति नियुक्त करने और संसद में दलितों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के बावजूद, भाजपा को विश्वास की कमी का सामना करना पड़ रहा है.
भारत की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी करीब 17% है, इसलिए अलगाव की राजनीतिक कीमत बहुत ज्यादा है. अब, जब दूसरे राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, तो भाजपा दलितों को अपने हिंदुत्व के पाले में और भी ज्यादा खींचने के लिए दृढ़ संकल्पित है. लेकिन क्या ये दृष्टिकोण वोट में तब्दील होते हैं, यह देखना अभी बाकी है.
मोदी के चहेते थरूर ने कांग्रेस को चिंता में डाला
शशि थरूर रूस में थे, लेकिन दिल्ली में झटके महसूस किए जा रहे थे- खासकर कांग्रेस पार्टी के पहले से ही कमजोर भावनात्मक परिदृश्य में. आधिकारिक तौर पर, थरूर अपनी बेस्टसेलिंग किताब इनग्लोरियस एम्पायर पर आधारित एक डॉक्युमेंट्री को प्रमोट करने के लिए एक निजी यात्रा पर थे. लेकिन अनौपचारिक रूप से? उन्होंने रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से मुलाकात की,
ऑपरेशन सिंदूर, आतंकवाद पर मास्को के शीर्ष नेतृत्व को जानकारी दी और यहां तक कि ब्रिक्स कूटनीति पर भी बात की. यह सब बिना किसी सरकारी पद के. या भाजपा की सदस्यता के. या अपनी ही पार्टी से हरी झंडी के. कांग्रेस के नेता अनुशासनहीनता के बारे में शिकायत करते हैं,
वहीं भाजपा को विदेश नीति की ब्रांडिंग मुफ्त में मिलती है - थरूर की वैश्विक चमक की बदौलत. वे कूटनीति के लाभों, बैकबेंच की स्वतंत्रता और मास्को और ट्विटर दोनों की प्रशंसा का आनंद ले रहे हैं. क्या वे भारत के सबसे उपयोगी अनौपचारिक दूत हैं? या कांग्रेस के सबसे असुविधाजनक सांसद? जो भी हो, थरूर आनंद ले रहे हैं.


