विधानसभा चुनाव के बाद स्थानीय निकाय चुनावों का बिगुल बजते ही राजनीतिक समीकरणों की परीक्षा होने लगी है. विभिन्न दलों के बीच महाराष्ट्र में जितना बिखराव हुआ है, उतना किसी राज्य में नहीं हुआ है. दल टूटना और नेताओं की आवाजाही नियमित हो चुकी है. सत्ताधारी होने के कारण भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के साथ नेताओं का जुड़ाव एक विवशता है. किंतु कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस (राकांपा), शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) को छोड़ने में किसी नेता के मन में कोई संकोच नहीं है.
जिसके चलते अदला-बदली से लेकर अवसरवाद को प्रमुखता मिल रही है. स्थानीय निकाय चुनावों के लिए नामांकन प्रक्रिया आरंभ होने के बाद भी पक्ष-विपक्ष दोनों के गठबंधन टिक नहीं पा रहे हैं. शीर्ष नेता अधिक बोलने से कतरा रहे हैं. यह माना जा रहा है कि चुनाव की दृष्टि से यह क्षेत्रीय आवश्यकता है, जबकि नेतृत्व के स्तर से इसे कहने में भी कोई संकोच नहीं किया जा रहा है कि कार्यकर्ताओं के चुनाव लड़ने की मानसिकता को ठुकराया नहीं जा सकता है. इस सब के ऊपर अप्रत्यक्ष तौर पर किसी एक गठबंधन में निचले स्तर से तैयार कार्यकर्ता ऊपर नहीं आ रहे हैं.
आयातित नेता अपनी महत्वाकांक्षा के साथ प्रवेश कर रहे हैं. उनमें वैचारिक स्तर पर एकजुटता का भाव नहीं है, जिससे संगठन की ताकत नहीं बन रही है. इन मिश्रित परिस्थितियों में वरिष्ठ नेताओं की इच्छा के बावजूद चुनावी गठबंधनों को दिशा नहीं मिल पा रही है.
महाराष्ट्र में चुनावी गठबंधनों को असली रूप नब्बे के दशक में मिला, जब भाजपा और शिवसेना ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा. इसके पश्चात वर्ष 1999 में भगवा गठबंधन का पतन हुआ और उसे विपक्ष में बैठने की नौबत आई. उस दौर में कांग्रेस, राकांपा ने साथ मिलकर कुछ निर्दलीय तथा अन्य दलों की लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार बनाई. यानी उसी साल भाजपा-शिवसेना गठबंधन और लोकतांत्रिक मोर्चा राज्य में अपनी पहचान बनाने योग्य हुए. उसके बाद गठबंधन के रूप में पक्ष-विपक्ष दोनों चलते और चुनाव में उतरते रहे. दोनों में सीटों के तालमेल पर मतभेद बनते और सुलझते रहे. किंतु वैचारिक स्तर पर भ्रम नहीं रहा.
राजनीति की दिशा तय थी. इसलिए निचले स्तर से ऊपरी स्तर पर मनभेद पैदा होने की स्थित नहीं बनी. किंतु वर्ष 2014 के चुनाव के बाद स्थितियां बदलीं. अलग-अलग चुनाव लड़ने के लिए वातावरण तैयार हुआ, जिसमें लाभ-हानि दोनों हुए. फिर भी वैचारिक स्तर पर बिखराव नहीं हुआ, लेकिन वर्ष 2019 में चुनाव के पहले जितना मनमुटाव नहीं था, उससे कहीं अधिक परिणामों के बाद देखने को मिला. सत्ता पाने के लिए विचार से अधिक अवसर को महत्व दिया गया. जिसके परिणामस्वरूप राज्य में महाविकास आघाड़ी की सरकार बनी.
उसके घटक शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा बने. दो साल से अधिक समय तक सरकार चली, किंतु वैचारिक बेचैनी ने दलों के बिखराव को मूर्त रूप दिया. वैसे भी नब्बे के दशक की तरह वर्ष 2019 में धर्मनिरपेक्ष और भगवा गठबंधन बराबर की ताकत और हिम्मत नहीं रखते थे. उन्हें सत्ता के लिए विपरीत विचारधारा के दल का सहारा आवश्यक था. उन्होंने भाजपा-शिवसेना के मतभेदों का लाभ लेकर राज्य में नए विचारों की सरकार का गठन कर लिया. चमत्कारिक रूप से सब कुछ ठीक चला.
सरकार के पतन के बावजूद लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणाम सामने आए, जिससे नए गठबंधन की मजबूती पर मुहर लग गई. मगर विधानसभा चुनाव के परिणाम इतने खराब आ गए कि आघाड़ी के गठन पर ही सवाल उठने लगे. लेकिन विवशता और आपसी निर्भरता कुछ इतनी हो चली कि दोनों से अलग होते नहीं बन रहा है. निचले स्तर के कार्यकर्ता, जिसने वर्षों भगवा दलों के साथ संघर्ष किया, को विचारधारा के विपरीत समर्थन के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. इसीलिए ऊपरी स्तर पर जितनी बैठकें और आंदोलन कर लिए जाएं, एक साथ रहना और चलना अभी कठिन ही है. जिसे स्थानीय निकाय चुनावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.पूर्व में विधानसभा चुनावों में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने गठबंधन का प्रस्ताव दिया था. वंचित बहुजन आघाड़ी (वीबीए) से भी तालमेल की बात उठी थी. कहीं न कहीं दोनों दलों के मतदाता धर्मनिरपेक्ष दलों के समर्थक रहे थे. किंतु उनको नजरअंदाज कर दिया गया. अब नांदेड़ में नगर परिषद चुनावों में वीबीए से कांग्रेस ने गठबंधन कर लिया है. इसी तरह नासिक में कांग्रेस मनसे से तालमेल कर रही है. यह केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं है, बल्कि शिवसेना शिंदे गुट भी भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए तैयार है. वहीं राकांपा (अजित पवार) गुट गठबंधन से पूरी तौर से बंधा नहीं है. यह साफ करता है कि अब गठबंधनों में वैचारिक समानता का सिद्धांत नहीं रह गया है. कांग्रेस ऊपरी स्तर से मनसे से गठबंधन करने में बच रही है, लेकिन स्थानीय इकाइयां अपनी आवश्यकता अनुसार कदम उठा रही हैं. इस सब का चुनावी नतीजा कुछ भी हो, लेकिन विचारों के स्तर पर राजनीति हाशिए पर है. जिसे देख यदि मतदाता अपना निर्णय लेता है तो परेशान होकर राजनीतिक दल उसकी तरफ देखते हैं. यह माना जा सकता है कि राजनीति का अंतिम लक्ष्य सत्ता को प्राप्त करना ही होता है, जिससे जनता की सेवा की जा सके. किंतु उस मार्ग में सिद्धांत महत्वपूर्ण होते हैं, जिनके सहारे कार्यकर्ता से लेकर नेता तक पनपते और प्रगति करते हैं. उन्हें तिलांजलि देकर सत्ता पाने से सीमित समय के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है, किंतु लंबी राह में एकजुटता समान आचार और विचार के आधार पर टिकती है. वर्तमान में चुनावी राजनीति में जीत के लिए कुछ भी करने की तैयारी है. जिसके परिणाम कभी खट्टे तो कभी मीठे हैं. यदि मिठास को बनाए रखना है तो विचारों का जतन करना होगा. खिचड़ी की राजनीति कुछ समय के लिए पेट भर सकती है, लेकिन निरंतरता के लिए पौष्टिकता से परिपूर्ण विधिवत रूप से तैयार आहार ही आवश्यक होगा.