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Assembly elections 2023: आदिवासी, ओबीसी और ब्राह्मण पर दांव, जानिए इसके मायने, आखिर पीएम मोदी क्या सोचते हैं!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 15, 2023 15:09 IST

Assembly elections 2023: मोहन यादव, एक ओबीसी, मध्य प्रदेश में एक अन्य ओबीसी शिवराज सिंह चौहान को पछाड़ने में सफल रहे और पुरुष प्रधान राजस्थान में लोकप्रिय महिला चेहरा वसुंधरा राजे के बजाय भजन लाल शर्मा, एक ब्राह्मण, भाजपा के मुखिया बन गए.

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ठळक मुद्दे बिहार जाति जनगणना सर्वेक्षण की घोषणा करके सभी को चकित कर दिया था.भाजपा की त्वरित प्रतिक्रिया थी कि ‘यह हिंदुओं को विभाजित करने का प्रयास है’. सभी को यह लगने लगा कि भाजपा को जातियों को लुभाने की जरूरत नहीं है.

Assembly elections 2023: एक आदिवासी, एक ओबीसी (पिछड़ा) और एक ब्राह्मण. यह नए मुख्यमंत्रियों की जातियों का क्रम था, जिन्हें भाजपा ने हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से तीन राज्यों में आश्चर्यजनक जीत हासिल करने के बाद एक के बाद एक घोषित किया. एक आदिवासी विष्णु देव साय छत्तीसगढ़ में शीर्ष पद पर हैं, जिस जाति का उस राज्य पर थोड़ा प्रभुत्व है.

मोहन यादव, एक ओबीसी, मध्य प्रदेश में एक अन्य ओबीसी शिवराज सिंह चौहान को पछाड़ने में सफल रहे और पुरुष प्रधान राजस्थान में लोकप्रिय महिला चेहरा वसुंधरा राजे के बजाय भजन लाल शर्मा, एक ब्राह्मण, भाजपा के मुखिया बन गए. खैर, जब नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव से थोड़ा पहले अक्तूबर में बिहार जाति जनगणना सर्वेक्षण की घोषणा करके सभी को चकित कर दिया था.

तो भाजपा की त्वरित प्रतिक्रिया थी कि ‘यह हिंदुओं को विभाजित करने का प्रयास है’. इससे सभी को यह लगने लगा कि भाजपा को जातियों को लुभाने की जरूरत नहीं है और उसने खुद को जाति की राजनीति से अछूता रखा है. लेकिन छह महीने से भी कम समय में होने जा रहे लोकसभा चुनावों के पहले दिल्ली द्वारा नए मुख्यमंत्रियों का सावधानीपूर्वक चयन एकदम स्पष्ट कर देता है कि भाजपा के लिए भी जाति बहुत मायने रखती है. वह अब ‘इंडिया’ के साझेदार नीतीश कुमार द्वारा निर्धारित एजेंडे से बच नहीं सकती.

दरअसल, जाति का गोरखधंधा किसी भी राजनीतिक दल को अछूता नहीं छोड़ रहा है, भाजपा कुछ भी कहती रहे. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के उदाहरण उस पार्टी के लिए यह काफी हद तक प्रदर्शित करते हैं जो हमेशा हिंदुत्व से जुड़ी रही है और सुशासन को अपना सबसे अलग फार्मूला बताती रही है.

वर्ष 1980 में अपने जन्म के बाद से ही राम और राम-राज्य भगवा पार्टी की पहचान रहे हैं, यह कौन नहीं जानता? नवीनतम तकनीकों के उपयोग के कट्टर समर्थक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, गरीबों और अन्य लोगों को समय पर सरकारी लाभ पहुंचाने के लिए एक विशाल तंत्र बनाया गया है और जो अच्छी तरह से काम कर रहा है.

ढेर सारी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को इस तरह से रचा गया है कि उन्होंने पार्टी को जाति संरचना से उबरने में मदद की है. प्रौद्योगिकी न तो किसी जाति को जानती है और न ही किसी चेहरे को पहचानती है. प्रसिद्ध सामाजिक वैज्ञानिक बद्री नारायण को यह कहते हुए सुना गया है कि ‘प्रभावी वितरण सेवाओं और लाभार्थियों के एक नए समूह के उद्भव ने जाति की राजनीति को कमजोर करने में भाजपा की मदद की है.’ लेकिन यह आंशिक सत्य है. जहां तक भारतीय राजनीति का सवाल है, प्रौद्योगिकी जाति की राजनीति को हरा नहीं सकती.

प्रधानमंत्री, जिनकी गारंटी ने तीन हिंदी भाषी राज्यों की जीत में ठोस भूमिका निभाई, ने नीतीश के सर्वेक्षण के ठीक बाद, अभियान के दौरान बस्तर (छत्तीसगढ़) में स्पष्ट रूप से कहा था कि गरीबों का कल्याण उनका मुख्य उद्देश्य है. जाहिर है, मोदी ने चुनावी खेलपट्टी पर बिहारी बाबू द्वारा फेंकी गई जातीय गुगली को खेलने से इनकार कर दिया था.

हालांकि, थोड़े समय बाद दिल्ली में ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ के लाभार्थियों के साथ बातचीत करते हुए, प्रधानमंत्री ने भारत की चार सबसे बड़ी (नई) जातियों के बारे में विस्तार से बताया: गरीब, युवा, महिलाएं और किसान. मोदी ने यह भी कहा कि वह हर गरीब व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार करना चाहते हैं, चाहे उसकी जन्म की स्थिति कुछ भी हो.

यह अलग बात है कि किसी भी गरीब या किसान को मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं चुना गया है. और तो और, राजस्थान में भाजपा की चुनावी जीत से पहले मुख्यमंत्री पद की मजबूत दावेदार एकमात्र ‘बहना’ पार्टी आलाकमान के लिए ‘लाडली’ नहीं रही हैं.  इसमें कोई शक नहीं कि तीनों मुख्यमंत्रियों को आम चुनावों में वोट की फसल काटने के लिए या तो उनके राज्यों में या आसपास के राज्यों में उनके जाति समूहों को खुश करने के लिए चुना गया है, जो नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बना सकें.

तीन मुख्यमंत्रियों की घोषणा के बाद से, सभी बहसें - टीवी स्टूडियो के अंदर या घरों और कार्यालयों में - जातियों के इर्द-गिर्द घूमती रहीं, न कि निर्वाचित मुख्यमंत्रियों की क्षमताओं के इर्द-गिर्द. सबसे कड़वी हकीकत यह है कि गरीबी अपने आप में एक कोई जाति नहीं होती है; न महिलाएं, और युवा और किसान भी. और यहीं पेंच है.

करीब 85 करोड़ गरीब लोगों को नौकरी या व्यवसाय मुहैया कराने के बजाय मुफ्त भोजन देकर सरकार पर आश्रित करना बेहतर समझा गया. नेताओं की यह रणनीति होती है कि कैसे कोई राजनीतिक दल अपना वोट बैंक बनाता है और उसे मतदान केंद्र तक ले जाता है. अगर नीतीश के लिए ये वोट बैंक ‘ओबीसी’ और ‘ईबीसी’ हैं, तो शरद पवार के लिए ये मराठा हैं.

अखिलेश और लालू यादव के लिए ये यादव हैं. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के सतत प्रयासों में रहने वाली भाजपा के लिए वोट बैंक प्रमुखतः विभिन्न जातियों के हिंदू ही हैं. जाति की राजनीति भारत की नियति बनी रहेगी, ऐसा आभास हर जगह दिखता है. नाम ओबीसी से ‘गरीब’ और आदिवासी से ‘किसान’ या ऐसा ही कुछ भी हो सकता है जो उस समय के राजनेताओं के लिए उपयुक्त हो. तीन भाजपाई राज्यों के नेताओं का चुनाव तो यही इंगित करता है.

 

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