पाकिस्तान के गृहमंत्री राणा सनानुल्लाह ने कुछ रोज पहले बयान दिया कि पाकिस्तानी सेना तहरीके-तालिबान पाकिस्तान के अफगानिस्तान स्थित गुप्त ठिकानों पर हमला कर सकती है। इसका जवाब देते हुए दो जनवरी को तालिबानी नेता अहमद यासिर ने 1971 में भारत के सामने पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्पण करने वाली चर्चित तस्वीर शेयर करके कहा कि पाकिस्तान अफगानिस्तान पर हमला करने की बात भूल जाए नहीं तो 1971 दुहराया जा सकता है।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर नजर रखने वाली मीडिया में अहमद यासिर के ट्वीट को पर्याप्त कवरेज मिली। तालिबानी नेता ने अपने ट्वीट में जो एंगल दिया वही एंगल मीडिया ने चलाया। तालिबान नेता ने कहा और मीडिया ने आँख मूँदकर मान लिया कि तालिबान नेता कह रहे हैं कि हमला हुआ तो वह पाकिस्तानी सेना को वैसे ही हराएँगे जैसे भारतीय सेना ने हराया और हथियार डालने को मजबूर करेंगे। लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच जारी ताजा तनाव की रोशनी में देखें तो इस मैसेज का मूल सन्देश केवल वह नहीं है जो ऊपर से दिखाया गया है।
तालिबानी नेता का सन्देश यह नहीं है कि युद्ध में हरा देंगे, बल्कि यह है कि हमसे उलझोगे तो एक बार फिर पाकिस्तान बँटेगा जैसे 1971 में बँटा था। इसका एक दूसरा ज्यादा बारीक सन्देश यह भी हो सकता है कि जिस तरह 1971 में भारत की सेना ने बांग्लादेश का साथ दिया था, इसबार 'पख्तूनिस्तान' का साथ दे सकती है।
बहुत से लोगों को यह दूर की कौड़ी लग सकता है लेकिन तालिबान का दावा बांग्लादेश से ज्यादा मजबूत है। बांग्लादेश की कौमी एकता का आधार भाषा थी। पश्चिमी पाकिस्तान से भौगोलिक दूरी भी बांग्लादेश के हित में थी लेकिन इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि बांग्लादेश की मुक्तिवाहिनी तालिबान की तरह कई युद्धों का अनुभव रखने वाली सुसंगठित सेना नहीं थी।
तालिबान का मतलब पख्तून जाति का संगठन है यह बात अब छिपी नहीं है। यह भी सर्वज्ञात है कि अफगानिस्तान से कई गुना ज्यादा पश्तून पाकिस्तान में रहते हैं। पाकिस्तानी पख्तूनों की बड़ी आबादी अफगानिस्तान से सटे इलाके में रहती है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के पख्तून बहुल इलाके इतिहास-भूगोल-मजहब-जबान इत्यादि से आपस में जुड़े हुए हैं। तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर दोबारा कब्जा हासिल करने के बाद अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली को अपने राष्ट्रपिता की तौर पर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। अब्दाली का शासन जिन इलाकों पर था उन्हें वह अफगान रियासत का हिस्सा होने का संकेत देते रहते हैं। ऐसे में पाकिस्तान के लिए अफगान राष्ट्रवाद का दमन करना आसान नहीं होगा।
पाकिस्तान बनाने वालों ने मजहब को विभाजन का आधार बनाया था। वो यह समझ नहीं पाए कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसी सामरी ताकतें नहीं चाहती हैं कि अविभाजित भारत जितनी बड़ी रियासत वजूद में आए क्योंकि फिर वह अमेरिका और ब्रिटेन के अरदब में नहीं रहेगी। इसलिए उन्होंने भारतीय नेताओं की दुखती रगों को दबाकर विभाजन का आधार तैयार किया। लेकिन मजहबी रियासत की एक दुखती रग यह भी है कि जब नहीं तब उनके भीतर कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा हो जाता है जो खुद को ज्यादा सच्चा और ज्यादा पक्का मजहबी होने का एलान करके रियासत पर दावा ठोक देता है।पिछले कुछ दिनों में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष पर अय्याशी के जैसे आरोप लगे हैं उसके बाद मजहबी आधार पर भी पाकिस्तानी हुक्मरानों की छवि मजहब के पाबन्द पाकिस्तानियों के बीच धूमिल होनी तय है। यदि तालिबान पाकिस्तानी पख्तून इलाके में खुलकर मौजूदा पाकिस्तानी हुक्मरानों (सेना और राजनेता) को गैर-इस्लामी घोषित करना शुरू कर देंगे तो पाकिस्तानी सत्ताधारियों को ज्यादा मुश्किल होगी। वह मुश्किल पाकिस्तान को 1971की राह पर ले जाएगी। याद रखें कि 1971 में कट्टर मजहबी संगठन जमाते-इस्लामी के बांग्लादेश के सदस्य पाकिस्तानी सेना का साथ दे रहे थे। जमाते-इस्लामी बांग्लादेश के लोगों ने पाक सेना के संग मिलकर अपने बांग्लादेशी भाई-बहनों के हत्या और बलात्कार में शामिल रहे। तालिबान के मामले में कट्टर मजहबी संगठन भी तालिबान के साथ हैं।
एक अन्य मामले में पाकिस्तानी सेना 1971 से भी बुरी स्थिति में है। 1971 में पाकिस्तानी सेना के अन्दर कोई बड़ा वैचारिक विभाजन नहीं था। पाकिस्तानी पत्रकारों की मानें तो इमरान खान के कारण पाकिस्तानी सेना भी दो खेमों में बँट चुकी है। पाकिस्तानी सेना पर भी हुक्मरानों की तरह पंजाब-परस्ती का आरोप लगता रहा है। विभाजन के बाद से ही पाकिस्तान में मूलतः पंजाबियों का दबदबा रहा है। पख्तून बनाम पंजाबी के संघर्ष सेना के अन्दर कितना गहरा है यह वक्त आने पर ही पता चलेगा लेकिन इतना तो तय है कि 1971 का बहुआयामी प्रतीक पाकिस्तान के ऊपर तलवार की तरह लटक रहा है।
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।