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शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की भेंट चढ़ती कृषि भूमि

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: March 17, 2025 14:18 IST

जरूरी है कि बुनियादी ढांचे के विकास के साथ कृषि योग्य जमीन का संतुलन बनाए रखा जाए. किसान अपनी जमीन देकर कुछ समय के लिए अपनी परेशानी कम कर सकता है, लेकिन वह स्थाई समाधान नहीं है. भारतीय परिदृश्य में कृषि की चिंताओं को समझ एक तालमेल के साथ विकास की आवश्यकताएं पूर्ण करनी होंगी.

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अब यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है कि देश में खेती की जमीन निरंतर घट रही है. बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है. वैैसे यह प्रक्रिया नई या पुरानी नहीं है. बरसों से कृषि उपज भूमि को उद्योगों और शहरी विकास की भेंट चढ़ाया जा रहा है. बस कुछ वर्षों के अंतराल के बाद आंकड़े जारी होते हैं और उन्हें चौंकाने वाले तथ्य के रूप में दर्ज कर लिया जाता है. 

वर्ष 2013-14 में कृषि भूमि 18 करोड़ 18 लाख 49 हजार हेक्टेयर थी, जो वर्ष 2018-19 में घटकर 18 करोड़ छह लाख 24 हजार हेक्टेयर रह गई. यानी 12 लाख 25 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हुई. अब वर्ष 2022-23 के आंकड़े में वर्ष 2018-19 की तुलना में कृषि योग्य जमीन घटकर 17 करोड़ 99 लाख 82 हजार हेक्टेयर रह गई. कुल मिलाकर बीते पांच साल में खेती की जमीन 6,42,000 हेक्टेयर कम हुई. 

इसके ठीक विपरीत इसी अवधि में बुआई का क्षेत्र 22,66,000 हेक्टेयर बढ़ गया. महाराष्ट्र में कृषि योग्य जमीन और बुआई क्षेत्र दोनाें में गिरावट आई. सर्वविदित है कि भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के मुताबिक भूमि राज्य सरकारों के दायरे में आती है. इसलिए राज्य सरकारों को व्यवसायिक, वाणिज्यिक, गैर कृषि उद्देश्यों के लिए खेती योग्य भूमि के उपयोग को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए. किंतु केवल महाराष्ट्र में ही बढ़ते शहरीकरण में कृषि योग्य जमीनें ही उपयोग में लाई जा रही हैं. 

हर शहर का आसपास के गांवों में विस्तार हो रहा है. किसानों की जमीनों को मुंहमांगे दाम देकर कांक्रीट का जंगल खड़ा किया जा रहा है. दूसरी ओर देश के हर भाग में संसाधन के अभाव का रोना रोए जाने से अंधाधुंध विकास किया जा रहा है. फिर औद्योगिकीकरण के लिए भी जमीनों की जरूरत को पानी की उपलब्धता के साथ पूरा किया जा रहा है, जिसमें कृषि योग्य जमीन पर उद्योगों को बसाना सरल उपाय है. 

स्पष्ट है कि जमीनों के देने के पीछे किसानों की सहमति अवश्य ही रहती है, जिसके पीछे कारण कृषि क्षेत्र का बढ़ता नुकसान और अधिग्रहण में एकमुश्त रकम मिलना समझा जा सकता है. इस पक्ष को भी समझा जाना चाहिए. कृषि क्षेत्र को लाभप्रद बनाने के लिए आवश्यकता और उत्पादन के बीच तालमेल बनाया जाना चाहिए. सरकार किसान की उपज अपने गोदामों में भर तात्कालिक समाधान कर देती है, लेकिन यह हर पैदावार के साथ संभव नहीं होता है. 

इसी चक्र में किसान फंसता है और उससे छुटकारा पाने के लिए अपनी जमीन बेचने के लिए मजबूर हो जाता है. इसलिए जरूरी है कि बुनियादी ढांचे के विकास के साथ कृषि योग्य जमीन का संतुलन बनाए रखा जाए. किसान अपनी जमीन देकर कुछ समय के लिए अपनी परेशानी कम कर सकता है, लेकिन वह स्थाई समाधान नहीं है. भारतीय परिदृश्य में कृषि की चिंताओं को समझ एक तालमेल के साथ विकास की आवश्यकताएं पूर्ण करनी होंगी. तभी पेट भी भरा रहेगा और देश भी बड़ा दिखाई देगा.

टॅग्स :FarmersAgriculture MinistryAgriculture Department
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