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ब्लॉग: जनप्रतिनिधि निभाएं रचनात्मक भूमिका

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: July 15, 2024 10:39 IST

हमारी संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को भी द्योतित करती है. इसलिए उसकी गरिमा बनाए रखना सबका कर्तव्य बनता है. इसके लिए कार्य करने का दायित्व धारण करने वाले जनप्रतिनिधियों से अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लें और सार्थक बहस करें.

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ठळक मुद्दे हमारी संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को भी द्योतित करती हैआशा है सांसद देश की भलाई के लिए नीति और कायदे बनाएं, उसे लागू कराएंजनप्रतिनिधियों से अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लें और सार्थक बहस करें

पूरे देश की जनता ने बड़ा भरोसा जताते हुए अपने 543  प्रतिनिधि चुनकर 18 वीं लोकसभा में भेजे हैं. उनकी आशा है ये सांसद देश की भलाई के लिए नीति और कायदे बनाएं, उसे लागू कराएं और जन-जीवन को सुरक्षित और खुशहाल बनाएं. संसद की सदस्यता की शपथ लेते समय सांसद गण इन सब बातों को ध्यान में रखने की कसम भी खाते हैं. 

यह भी गौरतलब है कि हमारी संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को भी द्योतित करती है. इसलिए उसकी गरिमा बनाए रखना सबका कर्तव्य बनता है. इसके लिए कार्य करने का दायित्व धारण करने वाले जनप्रतिनिधियों से अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लें और सार्थक बहस करें. चूंकि जनता के समर्थन से ही वे सांसद का दर्जा पाते हैं इसलिए संसद तक पहुंचने की कठिन यात्रा पूरी कर उसकी देहरी लांघ उनको सिर्फ आम जनता की नुमाइंदगी करनी होती है. यही उनका फर्ज बनता है.

लोकसभा की सदस्यता पांच साल की और राज्यसभा की छह साल की होती है और इस दौरान सांसद से अपना लोक-दायित्व इस पूरी अवधि में निभाना अपेक्षित होता है. बजट, मानसून और शीतकालीन ये तीन मुख्य सत्र होते हैं. बैठक में प्रश्नकाल और शून्यकाल की व्यवस्था भी होती है. उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए खास मौकों पर सांसदों की घेरेबंदी करनी पड़ती है. उनको पकड़ में बनाए रखने के लिए पार्टियों द्वारा व्हिप जारी किया जाता है.  

इतिहास पर गौर करें तो पता चलता है कि पहली लोकसभा की बैठक वर्ष में 135 दिन आयोजित हुई थी. सात दशक बाद सत्रहवीं लोकसभा तक आते-आते स्थिति कितनी नाजुक हो गई. इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि कुल 55 दिन की बैठक का ही औसत रहा. कोविड के कारण सन 2020 में कुल 33 दिन ही बैठक हुई. सन 1952 के बाद सबसे कम संसदीय काम सत्रहवीं लोकसभा में हुआ. (लगभग) बिना विचार किए बिल पास करने की प्रथा भी चल निकली. 35 प्रतिशत बिल एक घंटे से कम की चर्चा के बाद पास हुए. अब बिल स्टैंडिंग कमेटी को भी नहीं जाते;  कुल 16 प्रतिशत बिल ही उसके पास विचार हेतु भेजे गए. 

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