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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: यूपी चुनाव पर भाजपा की रपट दिखाती है उसका नजरिया

By अभय कुमार दुबे | Updated: April 27, 2022 10:01 IST

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की. बहरहाल, यूपी भाजपा ने चुनाव पर अस्सी पन्नों की एक रपट प्रधानमंत्री दफ्तर को भेजी है. इसमें कई अहम बातों का जिक्र है.

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उत्तर प्रदेश भाजपा ने अस्सी पन्नों की एक रपट प्रधानमंत्री दफ्तर को भेजी है. यह बताती है कि उ.प्र. के विधानसभा चुनाव को पार्टी किस निगाह से देखती है. इसकी मुख्य बातों को इस प्रकार समझा जा सकता है-

1. उत्तर प्रदेश में भाजपा के खाते में बसपा के वोट गए और साथ में जो फ्लोटिंग वोटर (बिल्कुल आखिरी मौके पर वोट देने का फैसला करने वाले मतदाता) थे, उन्होंने भी भाजपा का साथ दिया. यह रपट कुल मिला कर दावा करती है कि इन दो तरह के वोटों ने उसकी जीत में अहम योगदान किया.

2. भाजपा के सहयोगी दलों (जैसे, सुप्रिया पटेल के नेतृत्व में कुर्मी जनाधार वाला अपना दल और संजय निषाद के नेतृत्व में मल्लाह जनाधार वाली निषाद पार्टी) को भाजपा के वोट तो मिले, लेकिन वे अपने जनाधार के वोट भाजपा के उम्मीदवारों को स्थानांतरित करने में नाकाम रहे. नतीजतन, उनकी सीटें तो उन्हें मिल गईं, पर भाजपा के उम्मीदवार हार गए. उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य पटेल (कुर्मी) वोटों के न मिलने से ही पराजित हुए.

3. रपट के अनुसार इस बार भाजपा को गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के वोट भी नहीं मिले. रपट में इन जातियों के नामों का भी उल्लेख है. ये हैं कुशवाहा, मौर्य, सैनी, कुर्मी, निषाद, पाल, शाक्य, राजभर वगैरह. इन जातियों ने मोटे तौर पर समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में बने गठजोड़ को वोट दिया.

4. सपा के पक्ष में मुसलमान वोटों का ध्रुवीकरण हुआ जिसके कारण भी भाजपा कुछ सीटें हारी.

5. भाजपा आलाकमान खास तौर से यह जानना चाहता था कि सरकार की विभिन्न योजनाओं के तकरीबन नौ करोड़ लाभार्थियों ने वोट देने का राजनीतिक निर्णय कैसे किया. लखनऊ से भेजी गई रपट बताती है कि इन लाभार्थियों के बहुमत ने भाजपा को वोट नहीं दिया, बावजूद इसके कि वे इन लोककल्याणकारी योजनाओं को सराहनाभाव से देखते थे.

6. इस बार सपा के गठजोड़ को 311 सीटों पर डाक से डाले गए वोट भाजपा से अधिक मिले. कुल 4.42 लाख वोटों में से सपा को सवा दो लाख और भाजपा को 1.48 लाख वोट ही मिले. रपट में इसका कारण सपा द्वारा पुरानी पेंशन देने के वायदे को माना गया है. पारंपरिक रूप से डाक के वोटों में हमेशा भाजपा ही बाजी मारती रही है. यानी सरकारी कर्मचारियों ने भी आम तौर पर इस बार भाजपा का साथ नहीं दिया.

यह रपट बताती है कि अगर लोधी वोटों को छोड़ दिया जाए तो अन्य पिछड़ी जातियों ने इस बार भाजपा को वोट देने के बजाय यादव नेतृत्व के साथ जाना पसंद किया. मुसलमान मतदाताओं ने भी पूरी निष्ठा के साथ इस गठजोड़ का समर्थन किया. लेकिन, इस अभूतपूर्व एकता के बावजूद भाजपा को नहीं हराया जा सका. 

एक जमाने में इतने वोटों की एकता गैर-कांग्रेस या गैर-भाजपा राजनीतिक शक्तियों को सत्ता के नजदीक पहुंचा देती थी. इस तरह के चुनाव परिणामों का असर विपक्ष की राजनीतिक भाषा पर कुछ ऐसा पड़ता था कि ऊंची जातियों के खिलाफ ब्राह्मणवाद विरोधी लहजे में क्रांतिकारी लगने वाली बातें की जाती थीं. 

माहौल ऐसा बनता था कि अगर पिछड़े एक हो जाएं और उन्हें मुसलमानों का साथ मिल जाए तो कथित रूप से सेक्युलर और सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनीति परवान चढ़ सकती है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता में वापसी का नतीजा यह निकला है कि यह राजनीति और उससे जुड़ी वैचारिक भावनाएं व्यावहारिक चुनावी सफलता दिलाने काबिल नहीं रह गई हैं. अब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में ऊंची जातियों की उपेक्षा करके सरकार नहीं बनाई जा सकती. 

वैसे भी इस राज्य में ऊंची जातियों को केवल ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता. इस दायरे में भूमिहार, कायस्थ और जाट समुदाय भी अपना शुमार करने लगे हैं. इस कारण से ऊंची जातियों का संख्याबल भी बढ़ गया है. यह स्थिति उत्तर प्रदेश को बिहार से कुछ भिन्न बना देती है.

दूसरा महत्वपूर्ण सबक यह है कि फ्लोटिंग वोटर्स ने भाजपा की सरकार चलाने की शैली को अखिलेश यादव द्वारा पांच साल पहले चलाई गई सरकार पर तरजीह दी. उन्हें यह संभावना नहीं भायी कि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में यादव और मुसलमान दबदबे वाली सरकार चले. तीसरा सबक यह है कि बहुजन समाज पार्टी के जनाधार ने एक बड़ी हद तक भाजपा के पक्ष में वोट दिया. 

यहां एक बात का उल्लेख जरूरी है. कई जगह यह कहा जा रहा है कि बसपा के नेतृत्व ने गुप्त रूप से भाजपा का साथ दिया है. यह बात भाजपा के तमाम समर्थक और प्रवक्तागण निजी तौर पर चुनावी मुहिम के दौरान कह रहे थे. चुनाव के बाद कांग्रेस ने सार्वजनिक मंचों पर कहना शुरू किया कि बसपा ने कम से कम 152 सीटों पर भाजपा की चुनावी रणनीति के अनुकूल उम्मीदवार खड़े किए. लेकिन इन दोनों बातों में अंतर है. 

जनाधार (यानी जाटव वोट) का भाजपा में जाना और भाजपा से पूछ कर टिकट बांटना अलग-अलग बातें हैं. यह एक ऐसा मुद्दा है जिसकी पेचीदगी अभी खत्म नहीं हुई है.

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