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ब्लॉग: खाद्य पदार्थों में मिलावट पर लग पाएगी रोक ?

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: December 1, 2023 12:25 IST

उत्तर भारत और अन्य समीपवर्ती राज्यों में व्यापारियों, अधिकारियों और मिलावटखोरों का एक मजबूत गठजोड़ सक्रिय है जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक मावा (मिठाई बनाने के लिए) जैसे नकली कच्चे माल को आसानी से उपलब्ध कराता है।

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ठळक मुद्देपदार्थों में मिलावट रोकने के लिए एक संसदीय पैनल ने की है सिफारिशइस गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे की भारत में लंबे समय से उपेक्षा की गई हैकानूनों का कड़ाई से कार्यान्वयन समय की मांग है

नई दिल्ली: कई साल पहले मैं अपने भतीजे के साथ मेम्फिस (अमेरिका) में भोजन हेतु एक छोटे चीनी रेस्तरां में गया था, जहां उन्होंने वेटर को निर्देश दिया कि उनके छोटे बच्चों को कुछ एलर्जी है, इसलिए भोजन में मूंगफली और दूध का उपयोग न हो। वेटर ने ऑर्डर लिया और कुछ ही मिनटों में रेस्तरां के पोषण विशेषज्ञ के साथ वापस आ गया। उन्होंने एलर्जी के बारे में विस्तार से सुना और फिर शेफ को उसके अनुसार व्यंजन तैयार करने का निर्देश दिया।

खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए एक संसदीय पैनल की हालिया सिफारिशों के बारे में पढ़कर मुझे वह छोटी सी घटना याद आ गई। यह स्वागत योग्य कदम है कि समिति ने अपराधियों को कठोर दंड देने की सिफारिश की है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे की भारत में लंबे समय से उपेक्षा की गई है।

अमेरिका की अपनी यात्रा के बाद, पिछले कई वर्षों से मैं निगाह रखता रहा हूं कि हमारे शीर्ष रेस्तरां श्रृंखलाओं और पांच सितारा होटलों में क्या पोषण विशेषज्ञ होते हैं! दुर्भाग्य से मुझे दिल्ली, मुंबई, पुणे, इंदौर या औरंगाबाद में एक भी नहीं मिला। ऐसे में खुले में ठेले पर खाना बेचने वाले छोटे होटलों व फेरीवालों की तो बात ही छोड़ दें। उनकी स्वच्छता और खाना बनाने के तरीकों के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर है।

इसलिए, ग्राहकों को साफ सुथरा और बढ़िया भोजन के बारे में सलाह देने के लिए होटलों के कर्मचारियों में एक योग्य पोषण विशेषज्ञ का होना इस तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था में बहुत दूर की बात है, जो दुःखद है। खाद्य उत्पाद निर्माताओं, होटल व्यवसायियों और रेस्तरां प्रबंधकों से न्यूनतम अपेक्षा लाखों शिक्षित और अशिक्षित उपभोक्ताओं को मिलावट रहित भोजन और पेय पदार्थ परोसने की है। ऐसा हो नहीं रहा है। त्रासदी यह है कि अधिकतर नियामक संस्थाएं व अधिकारी पैसा कमाने के लिए अपराधियों के साथ मिले हुए पाए जाते हैं। इसलिए संसदीय पैनल की यह टिप्पणी प्रशंसनीय है कि मिलावटखोरों के लिए मौजूदा दंड आवश्यकता से बहुत कम कठोर हैं। इसके अध्यक्ष और सांसद बृजलाल को इस तरह की सिफारिशों के लिए बधाई दी जानी चाहिए क्योंकि खाद्य और पेय पदार्थ उद्योग सबसे आवश्यक और बड़े उद्योगों में से एक है जिसमें विभिन्न स्तर और हितधारक शामिल हैं किंतु मिलावट पर कोई संज्ञान नहीं लेता है। चूंकि इसका सीधा प्रभाव प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है, इसलिए कानूनों का कड़ाई से कार्यान्वयन समय की मांग है। केवल सिफारिशों से मदद नहीं मिलेगी।

सबसे बड़ा भारतीय त्यौहार दिवाली अभी-अभी बीता है। पूरे भारत से मिलावटी मिठाइयों, मुख्य रूप से डेयरी उत्पादों और अन्य खाद्य सामग्री को धड़ल्ले से बेचे जाने की अनगिनत शिकायतें सामने आई हैं। उत्तर भारत और अन्य समीपवर्ती राज्यों में व्यापारियों, अधिकारियों और मिलावटखोरों का एक मजबूत गठजोड़ सक्रिय है जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक मावा (मिठाई बनाने के लिए) जैसे नकली कच्चे माल को आसानी से उपलब्ध कराता है। हर साल खाद्य विभाग, जिला प्रशासन और अन्य लोग मिलावटखोरों को दंडित करने के लिए नमूने इकट्ठा करने, उनका परीक्षण करने और छापेमारी जैसी ‘औपचारिकताएं’ पूरी करते हैं। कई अन्य सरकारी अधिकारियों की तरह हर राज्य में खाद्य निरीक्षक भी (पुलिस या उत्पाद शुल्क या नगरपालिका अधिकारी जैसे) जनता की थाली में स्वास्थ्य संबंधी खतरे परोसने वाले अपराधियों के साथ मिले हुए हैं। खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 और बाद में पैकेजिंग और लेबलिंग नियम अस्तित्व में हैं लेकिन प्रभावी नहीं हैं।

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) में कृषि, स्वास्थ्य, उपभोक्ता मामले और वाणिज्य मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारी सदस्य रहते हैं. इसके क्षेत्रीय कार्यालय और प्रयोगशालाएं हैं; फिर भी भारत में जान जोखिम में डालने वाला मिलावटी भोजन दुर्भाग्य से एक फलता-फूलता व्यवसाय है। खाद्य सुरक्षा के सबसे अधिक उल्लंघन उत्तर प्रदेश में होते हैं और पूरे भारत में इस गुनाह की सजा की दर लगभग 14% है। यहां मैं उन सब्जियों के बारे में बात ही नहीं कर रहा हूं जिनमें स्वीकार्य सीमा से कहीं अधिक निकल, एल्युमीनियम, क्रोमियम और पारा पाया जाता है. ऐसा जहरीले पानी और जहां वे उगाए जाते हैं वहां की भयावह मिट्टी की गुणवत्ता की स्थिति के कारण है। खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम 1954 में पारित किया गया था और तेलों के बारे में एक कार्यकारी आदेश 1947 से अस्तित्व में है। लेकिन वे जानलेवा मिलावट के कारोबार को रोकने में बुरी तरह विफल रहे।

सभी 140 करोड़ भारतीयों- अमीरों, सभी जातियों और धर्मों के गरीबों, राजनेताओं, नौकरशाहों और न्यायाधीशों - को खाना तो खाना ही है. लेकिन सरकारें खाद्य पदार्थों में मिलावट को शायद ही उस गंभीरता से लेती हैं, जितना लेना चाहिए. वायु प्रदूषण जैसे जानलेवा खतरे के समान खाद्य पदार्थों में मिलावट और पीने के पानी की शुद्धता आज प्रमुख स्वास्थ्य चुनौतियां हैं। लेकिन कोई भी वास्तव में इनसे परेशान नहीं दिखता।  इसलिए, बृजलाल समिति की सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं, बशर्ते उन्हें अक्षरश: लागू किया जाए। ग्वालियर के पूर्व कलेक्टर आकाश त्रिपाठी ने 2009 में नकली मावा उत्पादकों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लगाया था. 2019 में, मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री तुलसीराम सिलावट, जो उस समय कांग्रेस में थे, ने खाद्य पदार्थों में मिलावट के खिलाफ एक बड़ा अभियान चलाया था। लोग मजाक में इसे ‘मिलावट के खिलाफ सिलावट’ कहते थे. लेकिन मामला काफी गंभीर था। खाद्य सुरक्षा जागरूकता का वह अभियान अल्पकालिक साबित हुआ क्योंकि अगली भाजपा सरकार ने इसे जारी नहीं रखा। नतीजा यह हुआ कि अन्य राज्यों की तरह मप्र में भी खाद्य पदार्थों में मिलावटखोरी पहले की ही तरह फल-फूल रही है. ‘अमृतकाल’ में इस गोरखधंधे को रोकने की अपेक्षा बेमानी नहीं होगी।

टॅग्स :भोजनFood MinistryFood and Civil Supplies Department
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