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राम ठाकुर का ब्लॉगः भारतीय क्रिकेट के बेहतर भविष्य का संकेत

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: February 8, 2019 07:45 IST

सही मायने में खिलाड़ी का असली ‘टेस्ट’ तो इस तरह के लंबे प्रारूप में होता है. लेकिन, बीसीसीआई का सारा ध्यान आईपीएल जैसे छोटे और तेजतर्रार वाले प्रारूप पर अधिक है.

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घरेलू राष्ट्रीय क्रिकेट में विदर्भ की टीम फिर सुर्खियों में है. विदर्भ की टीम ने दोबारा देश की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय स्पर्धा - रणजी ट्रॉफी अपने नाम की है. गुरुवार को उसने नागपुर में वीसीए के जामठा स्टेडियम में सौराष्ट्र को 78 रन से करारी शिकस्त देकर श्रेष्ठता साबित की. लगातार दूसरे वर्ष कामयाबी दोहराना बड़ी बात होती है. खास तौर से क्रिकेट के खेल में खिताब की रक्षा करना अपने आप में बड़ी सफलता मानी जाती है. अनेक अवसर पर रणजी ट्रॉफी के चैंपियन का फैसला पहली पारी के आधार पर भी हुआ है. लेकिन विदर्भ की टीम ने दोनों मर्तबा विरोधियों पर शानदार जीत दर्ज कर अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया है. 

विदर्भ-सौराष्ट्र फाइनल बेहद रोमांचक रहा. चारों दिन उतार-चढ़ाव के बीच गुजरे. कभी विदर्भ का पलड़ा भारी नजर आया तो कभी सौराष्ट्र का. पिछले दो अवसरों (2012-13, 2015-16) पर खिताब से चूकने के बाद सौराष्ट्र के लिए यह चैंपियन बनने का बढ़िया अवसर हो सकता था. भारतीय टेस्ट दिग्गज चेतेश्वर पुजारा की मौजूदगी टीम का हौसला बढ़ाने वाली साबित होने वाली थी. सौराष्ट्र का दारोमदार काफी हद तक चेतेश्वर पुजारा पर था लेकिन मध्यक्रम का यह दिग्गज बल्लेबाज दोनों पारियों में विफल रहा. पुजारा रणजी फाइनल की दोनों पारियों में 16 गेंदें खेलकर सिर्फ एक रन बना सके और दोनों पारियों में आदित्य सरवटे का शिकार बने. 

पिछले कुछ वर्षो में घरेलू क्रिकेट में खिताब के दावेदारों में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है. नब्बे के दशक तक आम तौर पर दिल्ली, मुंबई, बंगाल, कर्नाटक जैसी टीमों का बोलबाला होता था. यही वजह है कि मुंबई ने 41 मर्तबा विजेता बनने का गौरव हासिल किया. लेकिन आज स्थितियां बदली हैं और मुंबई जैसी टीम के लिए नॉकआउट में जगह पाना भी मुश्किल हो गया है. खिताब  का दावा पेश करने वालों में विदर्भ, सौराष्ट्र जैसी किसी जमाने की औसत टीमें मजबूत दावेदार के रूप में अपनी पहचान बना रही हैं. भारतीय क्रिकेट के लिए यह बेहतर भविष्य का संकेत है. 

आज भले ही आईपीएल में चमकने वाले सितारों की चर्चा हो रही है, लेकिन रणजी ट्रॉफी जैसे घरेलू राष्ट्रीय क्रिकेट के प्रदर्शन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लीग दौर में चार दिन के मुकाबलों में लगातार शानदार प्रदर्शन कर नॉकआउट चरण से फाइनल में प्रवेश करना होता है. एक सत्र में करीब पांच माह क्रिकेट खेलने के लिए तकनीक, टेम्परामेंट और दृढ़ ़संकल्प की जरूरत होती है. सही मायने में खिलाड़ी का असली ‘टेस्ट’ तो इस तरह के लंबे प्रारूप में होता है. लेकिन, बीसीसीआई का सारा ध्यान आईपीएल जैसे छोटे और तेजतर्रार वाले प्रारूप पर अधिक है. धन कमाने के लिहाज से आईपीएल उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हो सकती है, लेकिन हमेशा ही मुर्गी से सोने के अंडे की उम्मीद कहां तक उचित है?

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