अभय कुमार दुबे का ब्लॉग : नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिश

By अभय कुमार दुबे | Published: February 9, 2022 11:48 AM2022-02-09T11:48:15+5:302022-02-09T11:50:00+5:30

महंगाई-बेरोजगारी जैसी समस्याओं से पैदा होने वाले असंतोष का मुकाबला करने के लिए सरकार के पास हिंदू समाज में मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काने और पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद को हवा देने के हथकंडे हैं। यही बजट की नई पॉलिटिकल इकोनॉमी है।

Trying to create a new political economy in India | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग : नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिश

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग : नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिश

Highlightsआबादी का यह विशाल हिस्सा (इसमें देश के किसान भी शामिल है) बेरोजगारी, महंगाई और आमदनी में सतत गिरावट से जूझ रहा हैउद्योग-धंधों का सूक्ष्म (माइक्रो) और लघु (स्माल) सेक्टर बंद होने के कगार पर है

बजट से एक दिन पहले आने वाले आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि निवेश का कुछ ऐसा पैटर्न अपनाया जाने वाला है जिससे न केवल फौरी आर्थिक समस्याओं को संबोधित किया जा सकेगा, बल्कि दीर्घकालीन लक्ष्यों को भी वेधा जाएगा। आमतौर पर यह सब कहने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि सालाना बजट की आर्थिक कवायद मुख्य तौर पर अगले साल की जरूरतों को ध्यान में रख कर होती रही है। 

इस बार यह बात खास तौर से इसलिए कही गई थी कि बजट को फौरी आवश्यकताओं पर कम और दूरगामी आर्थिक लक्ष्यों पर अधिक फोकस करना था। हुआ भी वही। इसका नतीजा यह निकला है कि बजट के प्रावधानों ने देश की उस साठ फीसदी जनता की फौरी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जो आर्थिक मुश्किलों में फंसी हुई है। आबादी का यह विशाल हिस्सा (इसमें देश के किसान भी शामिल है) बेरोजगारी, महंगाई और आमदनी में सतत गिरावट से जूझ रहा है। उद्योग-धंधों का सूक्ष्म (माइक्रो) और लघु (स्माल) सेक्टर बंद होने के कगार पर है।

अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने इस बजट के वैचारिक आधार को बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि संगठित क्षेत्र में केवल छह फीसदी लोग कार्यरत रहते हैं लेकिन उसे निवेश का अस्सी फीसदी हिस्सा मिलता है। असंगठित क्षेत्र में देश के 94 फीसदी लोग काम करते हैं लेकिन उसे निवेश का बीस फीसदी हिस्सा ही आवंटित किया जाता है। इसी तरह देश के कृषि क्षेत्र में 45 फीसदी लोग रोजी-रोटी कमा रहे हैं लेकिन उसे केवल पांच फीसदी निवेश ही प्राप्त हो पाता है। 

सवाल यह है कि क्या सरकार को इस अंदेशे का डर नहीं लगता कि आम लोग उसे अमीर लोगों का एजेंट मान लेंगे और वोट के मोर्चे पर उसके खिलाफ गुस्सा फूट पड़ेगा? इस प्रश्न का उत्तर दो नई परिघटनाओं को समझने के जरिये मिल सकता है। एक परिघटना है लाभार्थी चेतना का उदय और दूसरी है उग्र पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद जो मुसलमान विरोध के साथ जुड़ गया है। पहली परिघटना को समझने के लिए उत्तर प्रदेश की चुनाव मुहिम में दिए जा रहे भाजपा समर्थक तर्क को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। मीडिया मंचों पर भाजपा समर्थकों की खुली दलील है कि हमने साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के लोगों के खातों में भेजे हैं। ये लोग सरकार की लोकोपकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं। बदले में ये लोग वोट देंगे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। यह एकदम नई चीज है। इसका राजनीतिक फायदा लाजिमी तौर पर आदित्यनाथ सरकार को मिलेगा।

दूसरी परिघटना का उदाहरण केंद्र सरकार के एक राज्य मंत्री द्वारा महाराष्ट्र में दिए गए एक भाषण से मिलता है। मंत्री महोदय महंगाई के मुद्दे पर बोल रहे थे। उन्होंने दो बातें कहीं। पहली, आप लोग साढ़े सात सौ रुपए प्रति किलोग्राम मांस खरीद कर खाते हैं तो आपको महंगाई क्यों नहीं लगती। अगर प्याज, टमाटर, आलू और दालें दस से पचास-सौ रुपए के बीच महंगी हो जाती हैं तो आप लोग शिकायत करने लगते हैं। दूसरी, नरेंद्र मोदी जैसा प्रधानमंत्री प्याज-आलू सस्ता करने के लिए नहीं आया है। मोदी जी ने तो पाक-अधिकृत कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए शपथ ली है। 

इसलिए जनता को प्याज-आलू-दाल से बाहर आकर अखंड भारत के लक्ष्य को सामने रखना चाहिए। मंत्रीजी की बातों के इन दोनों पक्षों का संबंध कहे-अनकहे तौर पर मांसाहार के ‘मुसलमान पक्ष’ और राष्ट्रवाद के पाकिस्तान विरोधी पहलुओं से है। इससे स्पष्ट है कि मोदी सरकार को पहला भरोसा तो लाभार्थी चेतना के सरकार समर्थक पहलुओं पर है, और दूसरा भरोसा जनता के बीच पाकिस्तान को भारत का शत्रु नंबर एक बताकर उसकी हिंदुत्ववादी गोलबंदी पर है। ध्यान रहे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी इस समय जाटों द्वारा मुगलों के खिलाफ किए गए संघर्ष के नाम पर वोट मांग रही है।

तो, सरकार का इरादा साफ है। वह आम जनता (जिसमें गरीबों से लेकर मध्यवर्गीय जनता तक आती है) की आर्थिक आमदनी बढ़ाने के जरिये उसकी हमदर्दी बटोरने का इरादा पूरी तरह से त्याग चुकी है। नब्बे के दशक से शुरू हुआ बाजारवाद इस समय अपने चरम शिखर पर है। दरअसल, सरकार ने उन आर्थिक उपकरणों और प्रावधानों से अपना नाता जानबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से तोड़ लिया है जिनका संबंध आम लोगों की खुशहाली बढ़ाने से रहा है। अब वह बजट में ऐसा दिखावे के लिए भी नहीं करना चाहती। 

वोटों के लिए जनगोलबंदी करने का जिम्मा लोगों के खातों में सीधे धन स्थानांतरित करने की योजनाओं और अन्य योजनाओं पर डाल दिया गया है। चूंकि लोगों की आमदनी धीरे-धीरे न के बराबर होती जा रही है, इसलिए अगर उन्हें महीने भर में पांच सौ-हजार भी बैठे-बिठाये मिल जाते हैं तो सरकार का मानना है कि वे उसके मुखापेक्षी हो जाएंगे और बदले में वोट देते रहेंगे। 

महंगाई-बेरोजगारी जैसी समस्याओं से पैदा होने वाले असंतोष का मुकाबला करने के लिए सरकार के पास हिंदू समाज में मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काने और पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद को हवा देने के हथकंडे हैं। यही बजट की नई पॉलिटिकल इकोनॉमी है। वैसे भी 2019 में मोदी को जो बहुमत मिला, उसका काफी-कुछ श्रेय उनकी लोकलुभावन योजनाओं के साथ-साथ बालाकोट स्ट्राइक से उपजे राष्ट्रवादी उफान को है।

Web Title: Trying to create a new political economy in India

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