प्रभु चावला
भारत हमेशा से लुटेरों के लिए आकर्षण का केंद्र और मुनाफाखोरों के लिए स्वर्ग रहा है. ईस्ट इंडिया कंपनी यहां व्यापार करने का फरमान लेकर आई थी और उस अर्थ में वह विजेता नहीं, व्यापारी थी. फिर उसने यहां की सत्ता पलटी, परंपराएं बदलीं और एक फलती-फूलती सभ्यता को अपने अकालग्रस्त उपनिवेश में बदल दिया. आदान-प्रदान का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह दासत्व में खत्म हुआ. केंद्रीय आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने हाल ही में घोषणा की कि वह अकाउंटिंग और डाटा स्टोरेज जरूरतों के लिए विदेशी स्वामित्व वाली डिजिटल प्रणाली को देसी फर्म जोहो से बदल रहे हैं.
साम्राज्यवादी ध्वज अब भारत के आकाश को प्रदूषित नहीं करता, पर आज एक नये साम्राज्यवाद का वर्चस्व है. यह वेस्ट इंडिया कंपनी है. ब्रिटिश किलों को ढहा दिया गया है, पर पश्चिम के डकैतों की नस्लें यहां अगाध धन कूट रही हैं. पुरानी औपनिवेशिक शक्तियां कपास, सोना और अफीम यहां से ले जाती थीं, वहीं नये डकैत 21वीं सदी के हीरे- यानी डाटा का व्यापार करते हैं.
लेखा परीक्षकों, सलाहकारों और विश्लेषकों के रूप में भारत आई पश्चिमी एजेंसियां यहां के सरकारी कामकाज में सेंध लगा चुकी हैं. मंत्रालयों में घुसकर इन्होंने हमारे राष्ट्र-राज्य को परनिर्भर बना दिया है. पहले वाणिज्य के जरिये देशों पर विजय प्राप्त की जाती थी, आज कंसल्टेंसी के जरिये दूसरे देशों को उपनिवेश बनाया जा रहा है.
अगर भारत आत्मनिर्भरता के मामले में गंभीर है, तो उसे बुराइयों की जड़ पर हमला करना चाहिए. अमेरिकी कंपनियां भारतीय व्यापार का ब्लूप्रिंट तैयार करती हैं, कॉरपोरेट रणनीति का खाका खींचती हैं और अरबों डॉलर का टेंडर तय करती हैं. मंत्रालयों में बैठकर इन कंपनियों के अधिकारी एक हाथ से नीतियों का मसौदा तैयार करते हैं, दूसरे हाथ से जेबों में मुनाफा भरते हैं.
इनके एजेंट नौकरशाहों के साथ काम करते हैं, सरकारी टेंडर उन्हीं के निर्देशों से जारी होते हैं, उनकी रिपोर्टों के आधार पर परियोजनाएं स्वीकृत होती हैं और इनके आकलनों पर अरबों के निवेश का फैसला लिया जाता है. ये कंपनियां भारत का ऑडिट नहीं कर रहीं, बल्कि भारत का आर्थिक भविष्य लिख रही हैं, और इस प्रक्रिया में इसकी संप्रभुता का क्षरण कर रही हैं.
इन कंपनियों का हर ऑडिट, हर आंकड़ा भारत के रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उद्योगों की सूचना लीक करता है. आज विदेशी वर्चस्व के खिलाफ भारत को उसी तरह एकजुट होना चाहिए. अगर ट्रम्प विदेशी व्यापार पर प्रतिबंध लगा सकते हैं, चीन विदेशी कंपनियों को रोक सकता है, तो 1.4 अरब की आबादी वाला भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता?
आज भारत को दूसरे स्वदेशी आंदोलन की जरूरत है. स्वदेशी 2.0 का अर्थ है कि हम सब कुछ अपना बनाएं. हमारी अपनी ऑडिट और कंसल्टेंसी कंपनी होनी चहिए, जिसे सरकार का पूरा समर्थन हो. सरकारी दफ्तरों में विदेशी कंसल्टेंसीज पर प्रतिबंध लगाया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि भारतीयों के लिए टेंडर व्यवस्था भारतीयों द्वारा तय की जाएगी.
रक्षा क्षेत्र में घरेलू कंपनियों के लिए सरकारी ठेकों का बड़ा हिस्सा आरक्षित रखा जाए. भारतीय उद्योगपतियों के लिए आवश्यक किया जाए कि वे अपना चंदा और दान भारत में देंगे, ताकि अपने विश्वविद्यालयों को बेहतर बनाया जा सके. देश के संभ्रांतों को वैश्विक ब्रांडों और देश के प्रति निष्ठा में से एक को चुनना होगा.
कॉरपोरेट दिग्गजों को अपने वेतन और भत्ते में कमी कर उन प्रतिभाशाली पेशेवरों को बाहर से बुलाकर अच्छे वेतन की नौकरी देनी होगी, जिन्होंने अमेरिका को महान बनाने में योगदान दिया है. भारत को महान बनाने के लिए उन पेशेवरों को भारत में बुलाया जाना चाहिए. जब महात्मा गांधी सूत कातकर, नमक बनाकर और सत्याग्रह के जरिये ब्रिटिशों की अवमानना कर सकते थे,
तो दुनिया के सबसे युवा कार्यबल और 3.7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले भारत के नेताओं के लिए मुश्किल कहां है? आत्मनिर्भर भारत केवल एक नारा नहीं हो सकता. इसे एक तूफान होना होगा, फैक्ट्री से वित्त तक, रसोई की मेज से कैबिनेट की फाइल तक, इसे विदेशी वर्चस्व से मुक्ति का अभियान बनना होगा. सांकेतिकता का समय बीत चुका है. यह स्वदेशी 2.0 का समय है.