एन. के. सिंह का ब्लॉगः जीडीपी आधारित विकास से बढ़ रही असमानता
By एनके सिंह | Published: July 13, 2019 06:11 AM2019-07-13T06:11:56+5:302019-07-13T06:11:56+5:30
ऑक्सफैम सहित विश्व की तमाम मकबूल सर्वेक्षण संस्थाएं भारत में लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता की ओर इंगित कर रही हैं. भारत आज से 29 साल पहले दुनिया में जीडीपी के पायदान पर 35वें स्थान पर था आज छठवें पर है.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई) की ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर साबित किया कि सकल घरेलू उत्पाद आधारित विकास नितांत दोषपूर्ण है और इसकी जगह भारत सरीखे तमाम मुल्कों को मानव विकास के बहुआयामी गरीबी सूचकांक को तरजीह देनी होगी. हालांकि रिपोर्ट ने यह भी कहा कि सन 2005-06 से सन 2015-16 तक के दस सालों में भारत ने गरीबी कम करने में दुनिया में सबसे अधिक सफलता हासिल की है.
ऑक्सफैम सहित विश्व की तमाम मकबूल सर्वेक्षण संस्थाएं भारत में लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता की ओर इंगित कर रही हैं. भारत आज से 29 साल पहले दुनिया में जीडीपी के पायदान पर 35वें स्थान पर था आज छठवें पर है. देखने में लगता है मानो सबकुछ हासिल हो गया है. लेकिन यह देश मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 29 साल पहले भी 135वें स्थान पर था और 2011 में भी उसी पायदान पर रहा. बड़ी कूद-फांद के बाद पिछले वर्ष यह 130वें स्थान पर पहुंचा. सीधा मतलब है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि का लाभ स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के रूप में गरीबों या मध्यम वर्ग तक कदापि नहीं पहुंच रहा है. इसके ठीक उलट तमाम देश जिनका जीडीपी भारत से काफी कम है, हम से बेहतर सुख-सुविधाएं अपने नागरिकों को दे रहे हैं.
यही भारत असमानता-समायोजित मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर फिसल कर दुनिया के देशों में 136 वें पायदान पर पहुंच जाता है. यानी तथाकथित आर्थिक विकास (जीडीपी) का लाभ गरीबों तक बिलकुल नहीं पहुंच रहा है जबकि अन्य देश, यहां तक कि पड़ोस के श्रीलंका और बांग्लादेश, कई पैमानों पर हमसे बेहतर कर रहे हैं. अगर देश की 77 प्रतिशत पूंजी केवल दस प्रतिशत लोगों के पास महदूद रहे और यह साल-दर-साल बढ़ती जाए तो समझ में आता है कि भारत में पिछले 28 साल से क्यों हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर लेता है और क्यों इसी दौरान हर रोज 2052 किसान खेती छोड़ मजदूर बन जाते हैं. देशवासियों की अज्ञानता का राज तब खुला जब लंदन की जानी-मानी संस्था इप्सोस मोरी ने अपने एक व्यापक सर्वेक्षण में पाया कि गरीबी -अमीरी के बीच फासले की हकीकत के प्रति अज्ञानता में भारत के लोग सबसे आगे हैं. उन्हें इस बात का कतई इल्म नहीं है कि देश की पूंजी किस तरह लगातार एक प्रतिशत अमीरों के पास सिमटती जा रही है और किस तरह गरीब और गरीब होता जा रहा है.
जहां एक ओर दशकों से सरकारें बढ़ती जीडीपी का ढिंढोरा पीटते नहीं अघातीं वहीं किसानों की मौत के आंकड़े देने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने सन 2015 के बाद से यह कॉलम ही अपनी रिपोर्ट से गायब कर दिया. हाल ही में देश के कृषि राज्य मंत्नी ने तीन माह पहले तक कृषि मंत्नी रहे राधामोहन सिंह के सवाल के जवाब में लोकसभा में स्पष्ट किया कि किसानों के मरने के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. उन्होंने यह भी बताया कि किसानों की आत्महत्या की संख्या सन 2014 के 5650 के मुकाबले 2015 में 8007 हो गई थी. लेकिन इसके बाद ये आंकड़े देना सरकार ने बंद कर दिया.
प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर अगले चंद वर्षो में भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (जीडीपी साइज) बनाने की प्रतिबद्धता को जगह-जगह दोहराया. ऐसा आभास दिलाने की कोशिश है जैसे जीडीपी बढ़ गया तो सब कुछ हासिल हो गया. हकीकत यह है कि विकास से इसका कोई सीधा संबंध तब तक नहीं हो सकता जब तक सरकारें बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ आमजन तक न पहुंचाएं.
दरअसल सरकार खासकर राज्य सरकारें डिलीवरी को जब तक भ्रष्टाचार-मुक्त और शिथिलता-शून्य नहीं करतीं तब तक अर्थव्यवस्था में वृद्धि का कोई मतलब नहीं होगा. केरल प्रति-व्यक्ति राज्य जीडीपी में अन्य कई प्रदेशों से काफी नीचे है परंतु मानव विकास सूचकांक में काफी ऊपर. उत्तर भारत के तमाम राज्य आज भी स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन गुणवत्ता में सबसे नीचे के पायदान पर हैं. इसका मुख्य कारण राज्य सरकारों के अमले में व्याप्त भ्रष्टाचार या शाश्वत उनींदापन है.
जीडीपी आधारित विकास के खोखलेपन का पर्दाफाश तब हुआ जब सन 2010 में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति सरकोजी के प्रयास से जीडीपी आधारित विकास की सार्थकता पर नोबल पुरस्कार विजेता द्वय अमर्त्य सेन और जोसेफ स्टिगलिट्ज के नेतृत्व में दुनिया के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का एक आयोग गठित किया गया. इसकी रिपोर्ट में जीडीपी की गणना के तरीके का भंडाफोड़ करते हुए बताया गया कि भारत की राजधानी दिल्ली के कनाट प्लेस में अगर ट्रैफिक जाम हो जाए या किसी बिजली संयंत्न के धुएं से आसपास के गांव के हजारों लोग बीमार हो जाएं तो देश का जीडीपी बढ़ जाएगा. इसके बाद ब्रिटेन के सस्टेनेबल डेवलपमेंट आयोग ने, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने, अर्थशास्त्रियों के रोम क्लब ने सरकारों को खासकर विकासशील देशों की सरकारों को अपना ध्यान उत्पादन आधारित विकास (जीडीपी) से हटा कर जन-कल्याण आधारित बनाने की सलाह दी है.