यकीनन यह विश्वयुद्ध नहीं है, लेकिन विश्वयुद्ध से कहीं अधिक भयावह है. यह आर्थिक जंग है. कारोबारी नजरिये से देशों को तोड़ने का दौर. एक बार किसी मुल्क की वित्तीय रीढ़ टूट जाए तो फिर वह जंग लड़ने की स्थिति में भी नहीं रहता. पाकिस्तान इसका ताजा उदाहरण है. उसकी जर्जर अर्थव्यवस्था आने वाले कई साल तक अपने पैरों पर खड़े होने नहीं देगी. जंग लड़ने की तो बात ही अलग है. लेकिन अपनी बदहाली के लिए पाकिस्तान खुद ही जिम्मेदार है. उससे निपटने के लिए जिस राष्ट्रीय चरित्र की जरुरत होती है, वह उसके पास नहीं है.
लेकिन मेरा इशारा इन दिनों पश्चिमी और गोरे देशों की बदलती मानसिकता की ओर है. अब उनके हाथों में घातक हथियार नहीं बल्कि ऐसे तुरुप के पत्ते हैं, जिसकी चाल चलते ही भले चंगे राष्ट्रों के बर्बाद होने का खतरा मंडराने लगेगा. तुरुप के इस पत्ते का नाम टैरिफ वार है. अमेरिका की शह पर उसके पिछलग्गू नाटो देश इस जंग में कूद पड़े हैं.
बुधवार को नाटो राष्ट्रों के मुखिया मार्क रूट ने हिंदुस्तान को खुले तौर पर धमकाया. उन्होंने कहा है कि यदि भारत ने अब रूस के साथ व्यापार जारी रखा तो नाटो भारत पर सौ फीसदी कारोबारी प्रतिबंध लगा देगा. उन्होंने इस धमकी का विस्तार चीन और ब्राजील के ऊपर भी बढ़ाया है और इसके केंद्र में रूस है. अब अमेरिका चाहता है कि यूक्रेन के साथ जंग रोकने के लिए रूस की चारों तरफ से घेराबंदी की जाए.
इसलिए वह नाटो मुल्कों पर दबाव बढ़ा रहा है. जरा मार्क रूट की भाषा देखिए. वे कहते हैं, ‘‘यदि आप चीन के राष्ट्रपति, भारत के प्रधानमंत्री या ब्राजील के राष्ट्रपति हैं और रूस के साथ व्यापार तथा तेल-गैस खरीदना जारी रखते हैं और मॉस्को में बैठा व्यक्ति शांति वार्ता के प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लेता तो फिर मैं 100 प्रतिशत बंदिशें लगा दूंगा.
ध्यान दीजिए कि इससे आप तीनों देशों पर गहरा प्रतिकूल असर पड़ेगा. इसके लिए नाटो जिम्मेदार नहीं होगा.’’ बेचारे मार्क रुट भूल जाते हैं कि जिन देशों पर वे सौ फीसदी बंदिशें थोपने की बात करते हैं, उनसे ही नाटो के सदस्य अभी भी तेल खरीद रहे हैं. यानी भारत रूस से तेल खरीदता है और यहां से वह तेल परिशोधन के बाद यूरोप के गोरे राष्ट्रों के पास जाता है.
कहीं अमेरिका से डरकर वे अपना नुकसान तो नहीं कर रहे हैं या फिर अमेरिका चाहता हो कि यूरोपीय देशों की तेल पर निर्भरता पूरी तरह समाप्त हो जाए और वे अमेरिका से महंगे दामों पर तेल आयात करने लगें! मार्क रूट यहीं नहीं रुकते. वे तीनों देशों से कहते हैं कि आप पुतिन को फोन करिए और उन्हें शांति वार्ता में शामिल होने के लिए तैयार कीजिए.
जाहिर है कि नाटो देश अमेरिका के दबाव में हैं. यह मात्र संयोग नहीं है कि एक दिन पहले ही डोनाल्ड ट्रम्प ने भी यही बात कही थी कि रूस और उसके व्यापारिक साझीदारों पर 100 फीसदी सेकेंडरी टैरिफ लगाए जा रहे हैं. यानी जिस तरह ईरान पर सीधे हमला करके अमेरिका ने इजराइल के साथ युद्ध विराम के लिए मजबूर किया था,
ठीक वैसे ही अब ट्रम्प टैरिफ जंग छेड़कर रूस और यूक्रेन के बीच जंगबंदी कराना चाहते हैं. उनके तरकश में उनकी कूटनीति के दो बड़े तीर आक्रमण की धमकी और कारोबारी चोट के हैं. अब चीन, ब्राजील और भारत पर वे फौजी आक्रमण तो कर नहीं सकते, इसलिए व्यापारिक क्षति पहुंचाकर ब्लैकमेल करना चाहते हैं.
एक दिन पहले ट्रम्प यूक्रेन के राष्ट्रपति से कहते हैं कि क्या वे रूस पर हमला कर सकते हैं? जेलेंस्की कहते हैं कि आप हथियार दीजिए. हम तैयार हैं. फिर ट्रम्प घोषणा करते हैं कि आक्रमण के लिए यूक्रेन को गंभीर और बड़े हथियार दिए जाएंगे. इनका खर्च नाटो देश उठाएंगे. जब रूस उनकी चेतावनी को खारिज कर देता है और नाटकीय अल्टीमेटम करार देता है तो अगले दिन वे कहते हैं कि रूस पर आक्रमण आवश्यक नहीं है. वे यूक्रेन से कहते हैं कि हम हथियार दें तो भी रूस पर हमले की मत सोचना. इसे क्या कहा जाए?
विश्व इतिहास में ऐसा कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं रहा है जो गिरगिटिया धमकियों और बाजार से तमाम देशों को ब्लैकमेल करता हो. ऐसे में अगर रूस यूक्रेन के नाटो में शामिल होने को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानता है तो क्या अनुचित है? यूक्रेन का रवैया भी पाकिस्तान जैसा ही है. वह चीन की गोद में बैठकर भारत पर गुर्राता रहता है.
आपको याद होगा कि नाटो देशों की शिखर बैठक से पहले डोनाल्ड ट्रम्प ने फरमान जारी किया था कि नाटो राष्ट्र अपनी जीडीपी का पांच प्रतिशत रक्षा पर खर्च करें. नाटो देशों को उनका रवैया बेतुका लगा था. फिर भी उन्हें ट्रम्प का हुक्म मानना पड़ा. ट्रम्प ने कहा था कि धन तो अमेरिका का है, पर नाटो देश मजे कर रहे हैं.
उन्होंने तो यहां तक कह डाला था कि जो राष्ट्र रक्षा पर खर्च नहीं बढ़ाएंगे तो वे रूस से उनका बचाव नहीं करेंगे, उल्टे रूस को उन पर आक्रमण के लिए प्रेरित करेंगे. ऐसे अटपटे मिजाज वाले व्यक्ति का कोई संगठन कर भी क्या सकता है? पिछले कार्यकाल में उन्होंने धमकी दी थी कि नाटो के देश उनकी बात नहीं मानेंगे तो वे नाटो से अलग होने में कोई संकोच नहीं करेंगे.
फ्रांस, हंगरी, तुर्किए, स्पेन और कनाडा जैसे कुछ अन्य देश अमेरिका के इस रवैये का विरोध भी करते रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह दब गई. अमेरिका के आगे बोल भी नहीं सकते. चीन की सेना में 30 लाख सैनिक हैं. उधर, नाटो में शामिल सारे तीस राष्ट्रों की सेना मिलाकर 33 लाख पर पहुंचती है.
इसलिए नाटो राष्ट्रों की मजबूरी है कि वे अमेरिका के छाते तले बने रहें. सवाल यह है कि भारत नाटो राष्ट्रों की इस धमकी का क्या करे? पाकिस्तान से बिगड़े रिश्तों के मद्देनजर अमेरिका और चीन पर हिंदुस्तान के लिए स्थायी भरोसा करने का कोई मतलब नहीं है और अमेरिका का भय यही है कि उसके खिलाफ एशिया में रूस, चीन और भारत का त्रिगुट नहीं बने.
आबादी को ध्यान में रखें तो चीन और भारत जैसे बड़े बाजारों को वह साथ रखना चाहेगा. यानी अपनी हरकतों से अमेरिका ने अपने को एक ऐसे कारोबारी जाल में फंसा लिया है, जिससे निकलना नामुमकिन नहीं तो आसान भी नहीं है.