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‘बाक़ी जो बचा था—काले चोर ले गए’ या ‘घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा’

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: June 27, 2018 13:55 IST

ज़रा सोचिए, हम अपने बच्‍चों को पढ़ने, गाने और देखने के क्‍या संस्‍कार दे रहे हैं।

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-यूनुस ख़ान

बीते दिनों हॉलीवुड की एक फिल्‍म रिलीज़ हुई है—‘जुरासिक पार्क-फॉलन किंगडम’। ये सन 1993 में रिलीज़ हुई स्‍टीवन स्‍पीलबर्ग की फिल्‍म ‘जुरासिक पार्क’ की सीरीज़ की पांचवीं फिल्‍म है। दरअसल डायनोसॉर हमारे लिए लंबे समय से कौतुहल का विषय रहे हैं। विज्ञान ने इन पर गहन शोध किया है और पता लगाया है कि आखिर वो क्‍या वजह थी कि अचानक दुनिया से डायनोसॉर विलुप्‍त हो गये।

बहरहाल...डायनोसॉर की दुनिया पर बनी फिल्‍मों को बच्‍चों की फिल्‍मों की तरह प्रोजेक्‍ट किया जाता है। ये बड़े स्‍टूडियो और उनके विकसित किये फ्रैंचाइज़ की सोची-समझी रणनीति है। जाहिर है कि ‘जुरासिक-पार्क फॉलन किंगडम’ के प्रति भी बच्‍चों का बड़ा रूझान देखने को मिला है। ठीक वैसे ही जैसे हॉलीवुड की सुपर-हीरोज़ वाली फिल्‍मों के लिए देखा जाता है। यहां एक बड़ा सवाल ये है कि बच्‍चों के लिए सिनेमा सोचना और बनाना लगातार कम से कमतर होता चला जा रहा है। अफसोस की बात ये है कि हिंदी में भी लंबे समय से बच्‍चों और किशोरों के लिए ओरीजनल कन्‍टेन्‍ट का इतना अभाव है कि हमारे और आपके घरों के बच्‍चे विदेशों से आयात किए गये कन्‍टेन्‍ट का उपभोग कर रहे हैं।

आप पायेंगे कि चाहे एनीमेशन हों या फिर इन्फोटेनमेन्‍ट की दुनिया के तमाम चैनल—हम बच्‍चों के लिए अपने देश में सामग्री विकसित नहीं कर पा रहे हैं। बल्कि विदेशों में विकसित सामग्री को विभिन्‍न भारतीय भाषाओं में डब करके रिलीज़ कर दिया जाता है। अब इसकी आदत पड़ चुकी है। इसके पीछे तर्क ये है कि ये सामग्री सचमुच अच्‍छे दर्जे की है। इसमें जानकारी का भंडार है। कमाल की बात तो ये है कि भारतीय विषयों पर भी विदेशी फिल्‍मकार बाजी मार ले जाते हैं। वो यहां आकर विभिन्‍न विषयों पर डॉक्‍यूमेन्‍ट्री बनाते हैं और उन्‍हें डिस्‍कवरी या नेशनल ज्‍योग्राफिक जैसे चैनलों पर प्रदर्शित करते हैं।

'अंग्रेजी में कहते हैं NFDC', ये ना होता तो भारतीय सिनेमा का इतिहास ही कुछ और होता

पुस्‍तकों की भी यही है। इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले हमारे बच्‍चे अमेरिकन पॉपुलर टीन-एज लिटरेचर पढ़ रहे हैं। हैरी पॉटर या इसी तरह की पुस्‍तकें। सवाल ये है कि क्‍या हिंदी या अन्‍य भारतीय भाषाओं में बच्‍चों के लिए सामग्री तैयार करना इतना मुश्किल है? और तो और मैंने कुछ घरों में माता पिता को ‘तारक मेहता...’ जैसे सीरियल को बच्‍चों का मानकर उन्‍हें परोसते देखा है।

ज़रा ग़ौर कीजिए कि बहुत छोटी उम्र के आपके घरों के बच्‍चे इन दिनों कौन-से फिल्‍मी-गीत गाते हैं। मेहमानों के आने पर ‘बच्‍चा, ज़रा वो गाना सुनाओ’ का इसरार करने पर बच्‍चे के होठों पर कौन-सा गाना सजता है। अब सवाल कीजिए कि क्‍या ये गाने वाक़ई बच्‍चों के लिए हैं। दरअसल हमने भारत में बच्‍चों के लिए फिल्‍मों, गीतों, पुस्‍तकों, डॉक्‍यूमेन्‍ट्रीज़ वगैरह का एक स्‍वस्‍थ बाज़ार ही तैयार नहीं किया। जो बाजा़र था वो धीरे धीरे विलुप्‍त हो गया। कई पीढ़ियां चंदामामा, चंपक, नंदन जैसी पत्रिकाओं को पढ़कर बड़ी हुईं हैं और ये उनके संस्‍कारों का हिस्‍सा बनीं। बच्‍चों की पत्रिकाएं या तो बंद हो गयी हैं या उनका विस्‍तार कम होता चला गया है।

ज़रा सोचिए, हम अपने बच्‍चों को पढ़ने, गाने और देखने के क्‍या संस्‍कार दे रहे हैं।

(यूनुस ख़ान विविध भारती में कार्यरत हैं।)

टॅग्स :फिल्मबॉलीवुड
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