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विजय दर्डा का ब्लॉग: सीने की वो धड़कन, गालों पर वो थपकी

By विजय दर्डा | Updated: July 12, 2021 14:46 IST

यह कम ही लोगों को पता होगा कि दिलीप साहब देशभक्ति में जेल भी गए थे. ये बात उस समय की है जब भारत गुलाम था.

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दिलीप कुमार में दो शख्सियत एक साथ बसती थी. एक थे दिलीप कुमार और दूसरे थे यूसुफ खान. दिलीप कुमार पूरी तरह से समर्पित थे अपनी अदाकारी में, निर्देशन में और यूसुफ खान पूरी तरह तल्लीन थे मानवता की सेवा और लोगों के अधिकारों के लिए. प्यार मोहब्बत को बांटना और रूठे हुए को गले से लगाना उनके रोम-रोम में बसा था. 

देश उनके सीने में धड़कता था. जब कारगिल युद्ध हुआ तो वे आगबबूला हो गए और कहने लगे- अच्छा नहीं किया. दोस्ती के नाम पर पीठ में छुरा घोंप दिया. यूसुफ खान गरीबों के प्रति, जरूरतमंदों के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे. जाति-पांति और धर्म के आडंबर से वे बहुत दूर थे. राम और रहीम दोनों एक साथ उनके दिल में बसते थे. 

उन्हें मंदिर के भीतर जाने से परहेज नहीं था. मंदिर बनवाने में सहयोग करने से कोई गुरेज नहीं था. वे सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते थे. बहुत आध्यात्मिक थे वे. अक्सर कहा करते थे- एक सूखा पत्ता जमीन पर नहीं गिरता जब तक उसकी रजामंदी नहीं हो... 

ये कोई सुनी सुनाई कथा नहीं है. ये महसूस किया हुआ मेरा निजी अनुभव है. उनसे मेरी निकटता रही है इसलिए उन्हें गहराई से जानने और समझने का मुझे अवसर मिला. देश किस कदर उनके दिल में बसता था, इसका एक उदाहरण बताता हूं. 

फिल्म ‘उपकार’ रिलीज हुई थी. उसका गाना है...‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’. उसी दौरान हम एक दिन खाने पर बैठे थे. वे कहने लगे कि मनोज कुमार को चूमने का दिल चाह रहा है. मेरे रोम रोम खड़े कर दिए. ये तुम देख रहे हो न मेरे बाल खड़े हो गए हैं! देश के लिए वे हर जगह खड़े मिलते थे. 

एक बार पाकिस्तान में वर्ल्ड एडवर्टाइजिंग कांग्रेस का आयोजन हो रहा था. उद्योगपति हरीश महिंद्रा चेयरमैन थे. उसी समय पाकिस्तान ने कश्मीर को अपने नक्शे में दिखा दिया. तय हुआ कि बात करने के लिए दिलीप कुमार को वहां भेजा जाए. वे गए. हालांकि बात नहीं बनी तो हम लोग भी पाकिस्तान नहीं गए. 

यह कम ही लोगों को पता होगा कि दिलीप साहब देशभक्ति में जेल भी गए थे. जब वे पुणे में थे तो मिलिट्री कैंटीन में सैंडविच बनाने का काम करते थे. एक दिन कहीं किसी जमावड़े में उन्होंने आजादी की लड़ाई के पक्ष में भाषण दे दिया. तब भारत गुलाम था. तत्काल पुलिस ने पकड़ लिया. बाद में उन्हें सैंडविच के दीवाने एक मेजर ने छुड़ाया. मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलालजी दर्डा और एन.के.पी. साल्वे की वजह से दिलीप कुमार से मुलाकात होती थी लेकिन वह वैसा ही था कि घर में कोई आया और परिचय हुआ! मेरे रिश्ते की शुरुआत 1971 में हुई जब मैं अपनी शादी का निमंत्रण देने उनके पास गया. 

बड़े मजाकिया लहजे में उन्होंने कहा कि शादी का बोझ उठा पाओगे बरखुरदार? मेरी समझ में बात नहीं आई. उन्होंने कहा- ‘देखो बरखुरदार ये बड़ा प्यारा बंधन है और यह बड़ी अहमियत रखता है. इस बंधन के अलावा किसी में वो शक्ति नहीं है जो तुम्हें भीतर से बदल दे लेकिन इसकी पवित्रता बहुत जरूरी है.’ उन्होंने कहा कि मेरी शूटिंग है इसलिए आ नहीं पाऊंगा लेकिन तुम्हें ढेर सारी शुभकामनाएं. 

उनसे दूसरी मुलाकात तब हुई जब मैं उनका साक्षात्कार लेने उनके घर गया. साक्षात्कार से पहले ही वे अपनी किसी फिल्म को लेकर गंभीर चिंतन में खो गए और कुछ देर बाद कहा कि मैं नहीं कर पाऊंगा. तुम्हें तकलीफ हुई. साक्षात्कार नहीं हुआ लेकिन उनके घर में मेहमाननवाजी को देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ.

1980 में यवतमाल में कबड्डी प्रतियोगिता के लिए अतिथि के रूप में हमने दिलीप कुमार को निमंत्रित किया. वो 25 दिसंबर की तारीख थी, जब वे यवतमाल पधारे. नागपुर से कार से वे यवतमाल गए थे और मैं उनकी सादगी से अभिभूत था. कोई स्टारडम नहीं. बिल्कुल एक सामान्य व्यक्ति जैसा उनका व्यवहार था. उन्होंने जबर्दस्त भाषण दिया और कबड्डी के मैदान में उतर गए. 

उन्होंने कहा कि मैं मिट्टी का हूं, मिट्टी से जुड़ा हूं. कबड्डी अच्छा खेलता हूं. आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि उस दिन क्या माहौल रहा होगा! उसके बाद घर पर खाना खाया. मेरी मां खाना परोस रही थीं तो उन्हें भी साथ बिठा लिया. एक तरफ बाबूजी और दूसरी तरफ बाई के साथ उन्होंने खाने का मजा लिया और खूब गप्पें भी कीं. 

उन्होंने ज्योत्सना को आशीर्वाद दिया और कहा कि मैं तुम्हारी शादी में आ नहीं पाया था. जब वे राज्यसभा का सदस्य मनोनीत होकर दिल्ली आए तो फ्लैट आवंटित हुआ. मुझसे कहा कि वहां तो मेरा मन भी नहीं लगेगा. मेरे नाम से भी एक बंगला आवंटित हो चुका था. 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड मुकेश पटेल के नाम से आवंटित था. 

वे अकेले रह रहे थे और उन्होंने प्रस्ताव दिया कि साथ आ जाओ. एक दिन दिलीप कुमार को हम दोपहर के भोजन पर वहां लेकर आए. बंगला देखते ही उन्होंने कहा कि मैं भी यहीं रहूंगा. फिर हम तीनों वहां रहने लगे. बड़े सुहाने दिन थे. हम तीनों की महफिल जमती. 

दिलीप कुमार तरन्नुम में आते ही हरफनमौला हो जाते थे. क्या सुरीला गाते थे वे! एक शाम मैंने उनसे पूछा कि राजकपूर साहब, देवानंद साहब के प्रति आपकी क्या राय है? बड़े चुटीले अंदाज में उन्होंने पूछा कि इन दोनों के साथ मेरा भी नाम क्यों नहीं जोड़ा? फिर बोले- ये तीनों ही अपने क्षेत्र के अच्छे खिलाड़ी हैं. तीनों में ही बांध कर रखने की क्षमता है.

जब हम दिल्ली में रह रहे थे तब मुझे महसूस हुआ कि सायरा बानो किस कदर मुहब्बत करती हैं अपने शौहर से. वे दूर मुंबई में होते हुए भी पूरा खयाल रखतीं. हमें फोन करके कहतीं कि साहब ने खाना खाया कि नहीं? दवाई ली कि नहीं? इधर दिलीप साहब आहिस्ते से कहते कि कह दो खाना खा लिया, दवाई ले ली. 

उधर से सायरा बानो कहतीं कि साहब आपसे ये बातें जबर्दस्ती बुलवा रहे हैं! वे मुझसे कहतीं कि इनका ध्यान रखिएगा, अपना कुछ ध्यान नहीं रखते हैं. माता-पिता, भाइयों और दोस्तों के प्रति तो उनका समर्पण अद्भुत था ही, वे हर रिश्ते को संभालते थे. दिलीप साहब और मेरी उम्र में बड़ा फासला था लेकिन इसका एहसास उन्होंने मुझे कभी होने नहीं दिया. संसद से बाहर निकलते हुए मेरे गालों को अपनी उंगलियों में समा लेने या फिर बड़े प्यार से आगोश में भर लेने के एहसास को मैं कभी भुला नहीं सकता. जब उन्हें महाराष्ट्रीयन ऑफ द ईयर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजे जाने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने सायरा जी से कहा कि मुझे कार्यक्रम में जाना है. सायरा जी उन्हें लेकर आर्इं और कार्यक्रम में दिलीप साहब ने ढेर सारा प्यार बांटा...!

जहां तक उनकी अदाकारी की बात है तो इससे बेहतर पंक्तियां और क्या लिखी जा सकती हैं...

दफन से पहलेनब्ज जांच लेना साहब!कलाकार उम्दा हैकहीं किरदार में न हो!

अलविदा दिलीप साहब! आपकी यादें जिंदगी के आखिरी लम्हे तक वाबस्ता रहेंगी.

टॅग्स :दिलीप कुमार
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